असाइनमेंट

2014
 यूरोप की कला में विभिन्न तकनीकियों का
अध्ययन चित्रों का चलन
  सोनम त्यागी 
र्निदेशक-
डा. लाल रत्नाकर
 यूरोप की कला में विभिन्न तकनीकियों का अध्ययन चित्रों का  चलन
यूरोप की कला-  पश्चिम की सभ्यता और कला के दो प्रेरणा स्त्रोत रहे है- यूनान तथा
बाईबिल। यूनान के लोग पश्चिम एशिया के आयोनियन प्रदेश से ग्रीस पहुँचे थे। वहाँ उन्होनें ग्रीक की सभ्यता और कला का उत्थान किया।
यूनान की कला विभिन्न युगों में वर्णित है-
1.      आरम्भिक युग- लगभग 1500 ई.पू. 490 ई.पू. तक
तथा नगर राज्यों की कला 490 ई.पू. 480 ई.पू.
2.      शास्त्रीय कला का आरम्भ 480 ई.पू. 450 ई.पू.
3.      शास्त्रीय कला का उत्कर्ष 450 ई.पू. 300 ई.पू.
4.      हैलोनिस्टिक कला 323 ई.पू. 31 ई.पू.
5.      इस्ट्रस्कन कला 8वीं शती ई.पू. 4थी वीं शती ई.पू. तक
6.      रोमन कला 3री शती ईसाई कला का आरम्भ तक
आरम्भिक युग (archaic period) तथा नगर राज्यों की कला 1500 ई.पू.- 480 ई.पू.- यूरोप का उस समय का इतिहास अभी तक अज्ञात है। लेकिन पुरातत्व के अनुशीलन से पर्याप्त प्राचीन सामग्री प्रकाश में आयी है। एक प्राचीन उल्लेख में कहा गया है कि एक युवती ने किसी दीवार पर अपने प्रेमी की छाया देखी। उसमें उसने रंग भर दिया और इस प्रकार चित्रकला की उत्पत्ति हुई। लेकिन इस उल्लेख में कोई सच्चाई नहीं है। इस समय एथेन्स ही कला का केन्द्र था। इसी समय से यूनानी कला ज्यमितीय रुपों के आधार पर आरम्भ हो जाती है। जिसमें मानव अथवा प्रकृति को कोई स्थान नही मिला। युनान की कला के उदाहरण केवल पात्रों के रुप में ही उपलब्ध है। ये घरेलु तथा दाह संस्कार दोनों के उपयोग में आते थे। इसे आध ज्यमितीय शैली कहा जाता है।
आध ज्यमितीय शैली- (proto-geometric)   -यह शैली 1000ई.पू. के लगभग एथेन्स में उत्पन्न हुई थी जिसमें अलंकरण के अभिप्रायः ज्यामितीय आकारों पर आधारित होते थे। अनुपातपूर्ण बनावट वाले पात्रों पर समतापूर्ण अलंकरण है। प्रायः समकेन्द्रिक वृत्त, चौपड, गोमूत्रिका, वक्र रेखाओं, कुण्डली, शकरपारा, त्रिभुज, चक्र, स्वास्तिक, प्रहेलिका आदि का अंकन है। इस शैली में दृढ औपचारिकता है। 8वीं शती में मानव ओर पशु आकृतियों को पात्रों के कुछ महत्वपूर्ण स्थानों पर अंकित किया जाना आरम्भ हुआ। इस समय अंकित विचित्र मानवाकृतियॉ प्रायः छाया प्रकाश के रुप में है जिसमें पार्श्व में सिर, सम्मुख मुद्रा में त्रिभुज के समान शरीर , दियासिलाई की तीलियोके समान पतली भुजाएँ, दोनों हाथ सिर पर रखे , पार्श्व स्तिथि  में टाँगें, गोल नितम्ब एवं दृढ पिडलिया उदरणीय है।
पार्श्व स्तिथि के रथ में भी चारों पहिए दिखाये गये है। इस प्रकार इस युग के कलाकार ने अत्यन्त उलझे हुए दृश्यों को भी समझने योग्य स्तिथि में प्रस्तुत किया। मृत्यु के नींद में सोया व्यक्ति, सागरीय युध्द, भवन जलपोत आदि इन पात्र चित्रो के विषय है। 750 ई.पू. के लगभग एथेन्स में डाइपालन शैली के पात्र इस ज्यमितीय प्रवृत्ति के सर्वोत्तम उदाहरण है। ये पात्र 5 फुट तक ऊँचे है।
वास्तु कला- काष्ठ के भवनों में मिट्टी के रंगीन खिलौनो से प्रवेशदार अलंकृत होते थे।         कही-कही चित्रकारी भी की जाती थी। इस समय के अवशिष्ट चित्रशैली की दृष्टि से तत्कालीन पात्रों की कला के समान है। उपासना गृहों के प्रवेशदारो का शीषाग्र (pediment) त्रिभुजाकृति बनाया जाने लगा। इनका मध्य भाग ऊँचा और दोनों ओर के भाग छोटे होते जाते है। दोनों ओर पशुओ आदि के मध्य किसी देवता अथवा दैत्य की आकृति और अन्त के नुकीले भाग में बहुत छोटी आकृतियॉ बना दी जाती थी।
मूर्तिकला-  इस युग में कास्य प्रतिमाओ और मृण्मूर्तियों का निर्माण हुआ। क्रीट में मिनोअन शैली में कांस्य की मानव तथा पशु प्रतिमाए बनी। छोटे बेलनाकार सिर, लम्बी टॉगें और दृढ अग्र एवं पृष्ठ भागों वाले कॉसे के बने छोटे-छोटे एश्व तत्कालीन पात्रों पर चित्रित अश्वाकृतियों के ही समान है। मानव शरीर भी स्पष्ट ज्यमितीय नियमों के आधार पर कल्पित हुआ है। बोस्टन संग्राहलय में रखी अपोलो की कास्य प्रतिमा,जो लगभग 700 ई.पू. में बनी थी। ज्यमितीय शैली पूर्णता दर्शाती है। लम्बा त्रिभुजात्मक मुख, विस्तृत नेत्र, लम्बी ग्रीवा , त्रिभुज शरीर और सुदढ जंघाए इसकी विशेषताए है। 7वीं शतीं ई.पू. के अन्त में यूनान की मानव प्रतिमा ज्यमितीय रुढियों से मुक्त हो गयी। इस समय की कूरोस (kouros)  की पुरुष प्रतिमा पूर्ण मुद्रा में है। उसका बायॉ पैर कुछ आगे बढा हुआ। और मुठ्ठी बँधे हाथ दोनों ओर जंघाओ का स्पर्श कर रहे है। शक्ति और सरलता इसकी विशेषताए है। इसे यूनानी मानव आकृति का प्रथम आदर्श माना जाता है। इस आकृति की  भव्यता, विशालता और अनुपात सम्पूर्ण यूनानी प्रतिमा  कला के इतिहास की सभी उत्तम आकृतियो मे प्राप्र है। इस युग की नारी आकृतियॉ वस्त्राच्छादित है और उनमें भी विविधता है। कोरे (kore)अर्थात् वस्त्राच्छादित युवती की आकृति से ही यूनानी नारी प्रतिमाएँ विकसित हुई।
     भवनों को अलंकृत करने के हेतु विचित्र प्रकार की प्रतिमाएँ निर्मित हुई- जैसे एक त्रिभुजाकार सिरदल में  तीन मुख वाले जीव की कल्पना की गई है जिसकी पूछँ सर्पाकार है। त्रिभुजाकार के कोणीय त्रिकोण को भरने की दृष्टि से यह बची उपयुक्त आकृति है।  इसी प्रकार युध्द की एक कल्पना, जिसके केन्द्र मे खडी हुई आकृतियॉ, उसके बाद घुटनों पर बैठी आकृतियॉ, और फिर लेटी अथवा गिरी हुई आकृतियॉ संयोजित की गई है।  यूनान की आरम्भिक प्रतिमाएँ लकडी के लट्टों में से तराशी जाने के कारण बहुत थी।  एक दम सपाट जैसी, बाँहे शरीर से चिपकी हुई, कन्धे एक दम ढलवाँ, बाकी शरीर कठोर सिकुडनों वाले वस्त्र के नाचे छिपा हुआ।
  चित्रकला- आरम्भिक युग की कला के कोई उदाहरण अवशिष्ट नहीं है। प्राचीन उल्लेखों तथा बहुत कम अवशेषों से ही कला का अनुमान लगाया जा सकता है। छठी शतीं ई.पू. में तिरछे परिपेक्ष्य दारा स्तिथि-लाघव का प्रयत्न आरम्भ हुआ। मध्य छठी शतीं ई.पू. का एक महत्वपूर्ण चित्रकार यूमारीज था। जो पुरुष आकृति से नारी आकृति के रंग में अन्तर करने वाला प्रथम चित्रकार माना जाता है। सीमोन नामक एथेन्स के अन्य चित्रकार को चित्रकला का आविष्कारकर्त्ता कहा जाता है। छठी शतीं ई.पू. में स्तिथि लाघव का प्रयोग करके किमोन (kimon)  नामक कलाकार ने चित्रकला के क्षेत्र मे परिपेक्ष्य के प्रयोगो के लिए नये दार खोल दिये।
 पात्र चित्रण- इस समय काले रंग की आकृतियो वाली टेक्नीक का प्रयोग हुआ है जिन्हें पकाई मिट्टी के लाल धरातल पर चित्रित किया गया है। आकृतियो की आन्तरिक रेखाए काले रंग को खुरटकर आंकित की गयी है। तथा कही-कही श्वेत और बैंगनी रंगो का भी पुट लगाया गया है।
कब्रों में काम आने वाले पात्रों पर प्रायः नेसास मानवः अर्ध्दमानव-अर्ध्द अश्व दैत्य को मारते हुए हेराक्लीज की पौराणिक कथा का अंकन बहुत लोकप्रिय था। दौडती हुई आकृतियो के हेतु घुटने मुडे हुए, पार्श्व मुद्रा में पैर अंकित किये जाते थे किन्तु शरीर का ऊपरी भाग सम्मुख मुद्रा में ही अंकित किया जाता था।  
  प्राय लाल धरातल पर काले रंग से आकृतियॉ बनती थी। किन्तु छठी शती ई.पू. के अन्तिम चरण में पात्रों के धरातल को काला रंगा जाने लगा और उनको रंगने के समय ही आकृतियों वाले भाग रिक्त छोडे जाने लगे। इस टैक्नीक को काले धरातल पर लाल आकृति चित्रण कहा गया है। काली पृष्टभूमि पर लाल आकृति के आरम्भिक कलाकार थे- एण्दोकिदीज (Andokides) और सियाक्स (psiax), मीदिआस (meidias painter) इनकी शैली में नाजुकपन है।
शास्त्रीय कला का आरम्भ-480-450ई.पू.- इस युग के चित्र तो नष्ट हो चुके है परन्तु उल्लेखों से उनके विषयों का पता चल जाता है। जैसे-त्राय की लूटपाट, पाताल लोक, मेराथन का युध्द, यूनानियों तथा अमेजनों का युध्द एवं अतिप्राकृत और अतिमानव विचित्र आकृतियॉ। अमेजनो के युध्द के चित्र में अश्वो को बिल्कुल सामने की स्तिथि (full front view) अंकित किया गया है।
वास्तुकला और मूर्तिकला- 480-450ई.पू. के लुडोविसी सिंहासन (Ludovist throne) के भवन केन्द्रिय पेनल पर प्रेम की देवी अफ्रोदिती को नवयौवना के रुप में सागर में से उत्पन्न होते हुए उच्च रिलीफ में उत्कर्ण किया गया है। ऊपरी शरीर पर वह झीना वस्त्र पहने है। इधर-ऊधर स्थित सेविकाएँ उसकी भुजाए पकड कर उठने में सहारा दे रही है। उसके नाभि से नीचे के शरीर को आगे एक वस्त्र के परदे से छिपाया जा रहा है।देवी की मुद्रा में सहजता और सौम्यता है।
इसी सिंहासन के एक ओर के पेनल में एक नग्न बाला अलगोजा (Double flute) बजाती हुई अंकित है।
यूनानी कला के स्वर्ण युग में दो कला सम्प्रदाय पनपे- एक पेलोपोनेशियन जिसका केन्द्र- ओलिम्पिक था, दूसरा एटिक- जिसका केन्द्र एक्रोपोलिस में एथेन्स था।इस युग के माइरन (myron) और पालीक्लीतस (polykleitos) श्रेष्ठ कास्य मूर्ति निर्माता थे। डस्कोबोलस-(Doscobolos or discus thrower) माइरन की एक प्रसिध्द कृति है। कहा जाता है की माइरन दारा काँसे की गाय को वास्तविक गाय समझकर एक बछडा दूध पीने के लिए मुँह मारता रहा और मर गया।भाला लिए हुए मल्ल(Doryphores or Spearman)प्रतिमा पॉलीक्लीतस की है। पॉलीक्लीतस गणितीयनियमों का अधिक विचार करता था। उसकी अन्य प्रतिमाओं में सिर पर पट्टी बाँधे हुए लडका” (Diadoumenos) अमेजन है।
फीदियास दारा बनाई गयी एथीना की आकृति को रोमन लेखकों ने आदर्श नारी आकृति कहा है। पंखदार विजय- श्री नाइकी का प्रथम चित्र बनाने वाला चित्रकार इसी युग का एरिस्तोफोन (Aristophon) था।
शास्त्रीय कला- उत्कर्ष काल- 450-300ई.पू.-
 वास्तु कला- पार्थीनन में आरम्भ में चूना पत्थर से पार्थीनन भवन का आयताकार निर्माण किया गया। इसके आगे और पीछे एक-एक बरामदा है। और सामने के भाग में बाहर की ओर निकली छत के भार को सम्भालने के लिए काष्ठ स्तम्भ लगाये गये थे। दोनो ओर पार्श्व में स्तम्भों की चौडी दीर्घाए थी। फर्श बीचों-बीच में किंचित-गोलाई में उठा हुआ था। अपने अंतिम रुप में यह संगमरमर का आयताकार भवन बन गया, जिसमें चारों ओर पक्ष- स्तम्भों (columns) की पंक्ति थी। छत में भी अर्धपारदर्शी तथ हस्तशिल्पोत्कीर्ण शिलाएँ लगाई गयी। और शीर्षाग्रों (pedment) स्तम्भ पंक्तियों की दीवार पर पट्टी में दोनों ओर उत्कीर्ण शिल्प की भद्रिकाएँ बनायी गयी थी।
मूर्तिकला- फीदियास नाम के एक शिल्पी ने कई भवनों हेतु मूर्तियों का निर्माण किया। शिल्पियों को मानव आकृति को क्रियाशील स्तिथियों में दिखाने हेतु अनेक अवसर मिलते थे क्रीडागारों में अल्पवस्त्रधारी सैनिकों में और ओलम्पिक खेलों में।
     इस समय तक यूनान में एथेन्स ही चित्रकला का केन्द्र था। लेकिन लगभग इसी समय अन्य स्थानों पर भी नये-नये सम्प्रदाय आरम्भ हो गये। इनमें आयोनियन सम्प्रदाय, सिक्योनियन सम्प्रदाय, थीबन एटिक सम्प्रदाय।

चित्रकला- इस युग का एपेलीज नाम का चित्रकार महत्वपूर्ण है। इनके प्रमुख चित्र- 
         अफ्रोदिती एनादायोमीन(Aphrodite anadyomene), चारीस, भाग्य की देवी ताइकी आदि। एपेलीज एक विशेष प्रकार की वार्निश का प्रयोग करता था। जो हाँथी दाँत को जलाकर बनायी जाती थी। जिसे एलीफेण्टाइन कहा जाता था।


मध्य युग-
ईसाई कला-  ईसाई कला के प्रमुख युग-
1 आरम्भिक ईसाई कला
2 (क) बाइजेटाइन संरक्षण- प्रथम युग
(ख) स्वर्ण युग प्रथम
(ग) आकृति विरोधी युग
(घ) स्वर्ण युग (दितीय) कोरोलिंजियन पुनरुत्थान
(ड) अन्य देशों में प्रसार का युग
3. रोमनस्क शैली
4. गोथिक शैली
रोम की लुप्त होती हुई सभ्यता में से ईसाईयत का प्रादुर्भाव हुआ। ईसाई धर्म को राजधर्म घोषित किया कोन्स्टेण्टाइन प्रथम ने। यूनान की आकृति- औरफ्यूज (Orpheus) को ही ईसा के लिए चुन गया। इस प्रकार बाईबिल का चित्रण आरम्भ हुआ। ईसाई धर्म के सर्वप्रथम चित्र रोम की भूमिगत- समाधि गुफाओं की भित्तियो पर मिलते है। इनमें अंगूरों के गुच्छे, पत्तियों,फलों,पक्षियों और क्यूपिक की मोहक आकृतियों के पेनल डिजाइनों दारा एक चित्र को दूसरे चित्र से अलग किया गया है।
बाइजेण्टाइन कला- 330-1453ई. (ईसाई कला)-
भवन वास्तु- दो प्रकार की वास्तु परम्पराएँ थी, एक- ईटों से निर्माण की और दूसरी-पत्थर से निर्माण की। जहाँ पत्थर का प्रयोग होता था वहाँ अर्धवृत्ताकार (Semicicular) गुम्बद बने। तथा ईटों के भवनों में ऐसे गुम्बद बने जो अण्डाकार(ovoid) थे। ईसाई पूजा-ग्रहों की पध्दति के चार रुप मिलते है- बेसिलिका,केन्द्रिका भवन, गुम्बदयुक्त बेसिलिका तथा क्रास के आकार का चर्च भूविन्यास।
मणिकुट्टम- पूजा ग्रहों की भित्तियों पर छोटे-छोटे रंगीन या काँच के पत्थर के टुकडे जडकर चित्रों की रचना की गई, जो खिडकियों और दरवाजों से आती धूप अथवा मोमबत्तियो के प्रतिबिम्बित प्रकाश से अद्भुत वातावरण की सृष्टि करते थे। बाइजेण्टाइन कला में छतों और दीवारों को इस विधि से अलंकृत किया जाता था। मणिकुट्टम चित्रो के आरम्भिक ईसाई उदाहरण मकदूनिया के चर्च ऑफ द होली एपोसिल्समें अंकित ईसा के जन्म के अतिरिक्त उहरीद आदि स्थानों पर भी मिले है।
मूर्ति शिल्प- प्रस्तर शिल्प और काष्ठशिल्प में कार्य किया गया। स्वतन्त्र रुप से खडी रहने वाली प्रतिमाओ के बजाय रिलीफ मे उत्कर्ण पाषाण शिलाओ का अधिक प्रयोग किया जाता था।
भित्ती चित्र- बाइजेटाइनकला में चार प्रमुख तकनीक आरम्भ हुए-
1.                  लकडी के छोटे पटरों पर सन्तों आदि की आकृतियॉ मोम से बनायी गयी।
2.                  खाल की पाण्डुलिपियों पर लघु चित्र अंकित किये गये। इनमें छोटे चित्र प्रथम टेक्नीक के समान है और बडे चित्र भित्ती चित्रों से प्रेरित है।
3.                  भित्ती पर बनाने वाले मणिकुट्टम चित्र
4.                  फ्रेस्को चित्र  

पुस्तक चित्रण- ईसाई धर्म पुस्तक का धर्म है। ओल्ड टेस्टामेण्ट और न्यू टेस्टामेण्ट दो भागों में विभक्त  पुस्तक बाइबिल मुख्तयः इतिहास ग्रन्थ है। जिसमें यहूदी लोगों का इतिहास  और ईसा मसीह का जीवन वृत्त वर्णित है। इसके कुछ अध्याय गीतात्मक, धार्मिक और भविष्यवाणी मूलक है। चौथी शतीं से ही खाल के ग्रन्थ बनने लगे थे। इनमें भी कालमों मे छोटे-छोटे चित्र अंकित है। कही-कही पूरे पृष्ठो के चित्र बने है।किसी लेख अथवा कविता अथवा धार्मिक संवाद के प्रारम्भिक अक्षर को बहुत अलंकृत बनाकर लिखना इस कला का प्रधान साध्य रहा है। कभी- कभी ह अक्षर सम्पूर्ण पृष्ठ को घेर लेता है। रंग बहुत चमकदार है।

गोथिक शैली-  इस शैली का आरम्भ 12वीं श्तीं में फ्रांस मे हुआ था। 13वीं शतीं में इसकी चरम उन्नति हुई। यह प्रधानतः भवन निर्माण की कला है। ईसाई कला तथा रोमनस्क परम्परा का मिश्रण ही ईसाई कला है। रोमनस्क प्रवृत्तियो का व्यव्स्थित रुप गोथिक शैली है। यह आरम्भ में उत्तरी फ्रांस की स्थानीय शैली थी। इस शैली में नुकीले महराबों वाले भवन बने है। आकृतियो की प्रतीकता है। गोथिक शैली के प्रचलन का अर्थ है- कलाओं का केन्द्र पूर्व की बजाय पश्चिम की ओर हट जाना। इस शैली को 13वीं शतीं में अन्तराष्ट्रीय शैली का महत्व प्राप्त हुआ। गोथिक का स्थाप्तय गणित आदि के आधार पर हुआ। गोथिक कला के अन्तिम कलाकार जिओत्तो थे। भवनों में स्तम्भों का विशेष महत्व है, जो नुकीले महराबों पर जन्म देते थे। इन्हीं महराबों पर छत स्थिर रहती थी। स्तम्भो पर मूर्ति उत्कीर्ण की जाती थी। ऐसे भवन धार्मिक कार्यो के लिए विशेष उपयोगी होते थे। इनमें लम्बे व ऊँचे दरवाजे  और खिडकियो का प्रयोग होता था। जिनमें से बहुत अधिक प्रकाश भवनों में आता था।
गोथिक कला की विशेषताएँ-
1 आकृतियों की लम्बाई- भवनों की छतें ऊँची होती थी, जिस कारण खम्भों, खिडकियों और दरवाजों की लम्बाई बढ गई थी। उसके प्रभाव से गोथिक मूर्तियॉ भी लम्बे आकारों में बनाई जाती थी।
2 मानवीय भावना- स्वर्ग आदि की आकृतियो को भी मानवीय भावना से देखा गया है। सभी सन्त, देवदूत, ईसा, और मरियम आदि को मानवीय भावना के अनुसार चित्रइत किया गया है।
3. रंगों का आकर्षण- रंजित काँच की खिडकियों में चमकदार रंगों का अधिक प्रयोग किया  गया है। यह विधि आध्यात्मिक तथा स्वर्गिक अलौकिक अनुभव को जगाने में विशेष सहायक सिध्द हुई।
4 यथार्थवादिता- आकृतियो का यथार्थपूर्ण चित्रण किया गया है। अःत उनमें स्वाभाविकता अधिक है।
5 विषयों की विविधता- धार्मिक व अधार्मिक विषयों का अंकन हुआ है।  धार्मिक                                        कृतियों में- कुमारी तथा शिशु, सन्त, देवदूत आदि। अन्य कृतियों में सम्राटों, संरक्षकों के व्यक्तिचित्र, मृत्यु का नृत्य और अन्तिम न्याय आदि।
6 वास्तु शिल्प- गोथिक शैली के वास्तु का उत्तरी फ्रांस के केथेड्रलों से आरम्भ हुआ।
              सभी खुले स्थानों पर लम्बी खिडकियॉ लगाक उनमें रंजित काँच जड दिये जाते थे। इनके भडकीले लाल, बैंगनी और हरे आदि रंग बाहर से आने वाले प्रकाश को रंगों में परिवर्तित करके एक अलौकिक और अवास्तविक वातावरण का प्रभाव उत्पन्न कर देते थे।

गोथिक भवन की कमानीदार छतों के र्निमाण में परस्पर काटते हुए दो चापों का प्रयोग हुआ है। जिन्हें रिब्स कहते है। चर्च भवन के र्निमाण में अन्दर प्रार्थना स्थल के चारों ओर परिपथ ओर छोटे कक्ष बनाये गये है। गोथिक का जो विशेष उत्थान उसे उच्च गोथिक कहते है। इस शैली के सभी अलंकरण उर्ध्वलय में बनाये गये है।अःत इसे प्रलम्ब अध्याय भी कहा जाता है।  

यूरोपियन कला में गौथिक कला का विश्लेषण
शबनम 
एम. ए. III सेम  
------------------------
निर्देशकः-
डाॅ0 लाल रत्नाकर
अध्यक्ष
चित्रकला विभाग

गौथिक शैली
गौथिक कला का प्रादुर्भाव बारहवीं शती के मध्य फ्रांस में हुआ। प्रारम्भ में इसे फ्रांसीसी शैली के नाम से जाना जाता था। क्योंकि फ्रांस में ही मुख्य रूप से इसका विकास हुआ इसके साथ यह कला फलाण्डर्स तथा इंग्लैण्ड में विकसित हुई। यह प्रमुख रूप से भवन निर्माण की कला है। किन्तु इसमें अन्य कलाओं का भी विकास हुआ। यह शैली ईसाई धर्म तथा रोमनस्क परम्पराओं पर आधारित है। नुकीले मेहराब वाले भवना व खिड़कियाँ गोथिक कला की विशिष्ट देन है। इस नुकीजले मेहराव वाली खिड़कियों से सुसज्जित गिरजाघरों और कंथीरल विश्वकला धरोहर के लिए एक बहुमूल्य देन है। सुप्रसिद्ध कवि दान्ते ने उन्हें, जमें हुए संगीत (फ्रोजेन म्युजिक) की संज्ञा दी है। गोथिक शैली में भवनों में एक हल्कापन आया। हल्की और ऊँची दीवारें स्तम्भों के समान बनायी गई जिनसे भवनों की छतें ऊँची बन सकी और उनमें बड़े आकार के खिड़कियाँ के लिए विपुल स्थान निकल आया। भवनों में आने वाले प्रकाश ने एक हलचल उत्पन्न कर दी। 
फ्रांस में सम्राट नवें लूई के शासनकाल में भवन निर्माण का प्रत्येक नगर में एक नया अभियान छिड़ गया। समाज का प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक रूप से अक्षम होने तक इस कार्य में सहयोग करता रहा। सुन्दर से सुन्दर चर्चों के निर्माण की छोड़ लग गयी। चाट्रेस, एमीन्स, नोत्रो डेम, रीम्स, बोर्जेस बायू आदि में एक साथ नयी शैली के भव्य पूजाहार बने। इंग्लैण्ड में हेनरी तृतीय के शासनकाल में केण्ताबरी, विंचेस्तर, सेण्ट अकबान्स, वेल्स आदि में पूजाघरों का निर्माण हुआ। 
गौथिक शैली के भवनों के साथ-साथ तीन कला-रुपों को विशेष प्रोत्साहित किया। मूर्तिकला, रंजित कांच तथा पाण्डुलिपि अलंकरण। धातुशिल्प, आभूषण, एम्ब्रोइडी, टेपेस्ट्री तथा हाथी दाँत की कलाओं का भी विकास किया। 
रंजित कांच की खिड़कियाँः- रंजित कांच का कार्य प्राचीन मणिकुटिटम से अधिक मिलता जुलता था और यह कार्य ही इस युग की अमूल्य निधि है। इटली में वेनिस के निकट कांच में धातु-आक्साइड मिलाकर रंजित कांच बनाने की विधि लगभग एक हजार वर्षों से चली आ रही थी। इसमें आकार और चित्र भी बनते थे। जो खिड़कियों में लगा दिये जाते थे। गौथिक कलाकारों ने इस विधि का भरपूर प्रयोग किया और कांच की खिड़कियों में बने रंगीन चित्रों के माध्यम आने वाले प्रकाश से पूजाघरों के कक्षों में एक आध्यात्मिक तथा आलौकिक वातावरण उत्पन्न हो जाता। फ्रांस में पेरिस के सेण्ट चैपेल, चाट्रेस कैथेड्रल आदि तथा इंग्लैण्ड में केण्टाबरी एवं यार्क के चर्चों, के दीवारें अदृश्य होगी और रंजित कांच की खिड़कियों में अंकित धार्मिक आकृतियाँ का ही सम्पूर्ण वातावरण पर प्रभुत्व छा गया। 
1135 में फ्रांस के तत्कालीन शासक एबोट सूजर ने पेरिस के बाहर निर्मित सन्त डेनी के चर्च में कारोलिंजियल शैली के अलंकरण आदि को परिवर्तित कराना आरम्भ किया लगभग 13 वीं शती तक यह कार्य पूरा हुआ। इस नयी शैली में धातु उत्कीर्ण आकृतियों से अलंकृत द्वार जो प्रायः कांस्य के बनाये जाते थे। भवनों में बनाये जाने लगे इनके ऊपर तथा भवनों में मणिकुट्टिम का कार्य होने लगा। परन्तु इसमें कोई नवीनता नहीं थी। सम्भवतः सूजर का लक्ष्य फ्रांस में इटैलियन चर्च का निर्माण कराना था। इस चर्च को बनाने वाले कारीगर रोमन कला शैली में दीक्षित थे। इस कला की सबसे महत्वूपर्ण बात आकृतियों की प्रतीकता थी। सन्त डेनी के चर्च में नवीनीकरण होने के साथ पेरिस नगर तथा पास के क्षेत्रों में नवीन भवनों का निर्माण आरम्भ हुआ। जिनकी शैली की उदभावना में अनेक देशों के कलाकारों में सहयोग दिया। इन भवनों में स्तम्भों का विशेष महत्व है जो नुकीले मेहराबों को जन्म देते हैं। इन मेहराबों पर छत स्थिर रहती है। ऐसे भावना धार्मिक कार्यों के हेतु विशेष उपयोगी होते थे। द्वार कपाटों तथा खिड़कियों में लगे कांच एवं मेहराबों तथा दीवारों के छोटे-छोटे पेनलों में बने चित्रों के रूप में ही गोथिक चित्रकला का उदाहरण है। इसके अतिरिक्त कुछ पुस्तक चित्रों की रचना हुई। पुस्तकों को अंलकृत करने वाले कलाकार तो नई-नई शैलियों और नये-नये फैशनों के आविष्कार में ही लगे रहे। इस प्रकार चित्र के दृश्य में परिप्रेक्ष्य एवं गढ़नशीलता आदि के भ्रम उत्पन्न करने का जो प्रयत्न जो गोथिक में हुआ। उसने परवर्ती कला को बहुत प्रभावित किया। हेनरी फोसलन के अनुसार ‘‘स्वर्ग से सम्बन्धित वस्तुओं को संसार से सम्बन्धित कर देना ही गौथिक कला का महान लक्ष्य था। ईसा की सूली के एक चित्र ज्ीम ।सजंतचपमबम व िजीम चंतसपंउमदज में ईसा के दोनों और तत्कालीन फ्रांसिसी अभिजात वर्ग के व्यक्ति पेरिस में पहनी जाने वाली वेशभूषा में चित्रित किये गये। आगे चलकर मरियम की छवि सौन्दर्य तथा नवयौवन से परिपूर्ण अंकित की गई। 
14 वीं शर्ती के लगभग लघु-चित्रण कला में दृश्यांकन परिप्रेक्ष्य तथा यर्थाथवाद के प्रति विशेष रूचि जाग्रत हुई। शान्ति और युद्ध के समय की दिनचर्या का अंकन होने लगा और समाज के प्रत्येक वर्ग का अंकन होने लगा। इसीसे आगे चलकर सन्तों के जीवन-चरित्रों के बहाने कलाकारों ने दृश्यों की विविधता और अपनी कुशलता का परिचय दिया। चित्रों के हाशिये भी अलंकृत किये जाने लगे। 
गौथिक कला की विशेषताएँः-
1) आकृतियों की लम्बाई- शैली के भवनों की छतें बहुत ऊंची होती थी। अतः उनमें लगे खम्भों और खिड़कियाँ तथा दरवाजे भी बहुत लम्बे होते थे। उनके प्रभाव से गौथिक मूर्तियाँ भी लम्बे आकारों में बनाई जाती थी। इसके कारण गौथिक कला की आकृतियों में सामान्य रूप से लम्बाई कुछ बढ़ गयी है। 
2) मानवीय भावनाः- गौथिक कलाकारों ने स्वर्ग आदि की आकृतियों को भी मानवीय भावना से देखा है। सभी सन्त देवदूत, ईसा तथा मरियम आदि मानवीय अनुभूतियों के अनुसार अंकित किये गये है। मरियम को सौन्दर्य तथा नवयौवन से परिपूर्ण दिखाया है। बालक ईसा को गोद में लिए उनकी आकृति पूर्णतः मातृत्व को व्यजंक है। ईसा के कष्टों को भी मानवीय जीवन के कष्टों के रूप में देखा गया है। 
3) रंगों का आकर्षण- बाइजेण्टाइन युग के मणिकुटिटम चित्रों की अपेक्षा गौथिक युग की रंजित कांच की खिड़कियों में चमकदार रंगों का अधिक आकर्षण है। यह विधि आध्यात्मिक तथा स्वर्गिक आलौकिक अनुभव को जगाने में विशेष सहायक सिद्ध हुई है। 
4) यर्थाथवादिताः- मानवीय भावना के अतिरिक्त इन कलाकारों ने आकृतियों का यथार्थता  पूर्ण अंकन किया है। अतः उनमें (स्वाभाविकता अधिक है।)
5) विषयों की विविधताः- गौथिक काल में धार्मिक तथा धर्म से भिन्न विषयों को चित्रित किया गया है। धार्मिक कृतियों में कुमारी तथा शिशु, ईसा की सूली, और सन्त, पिएटा (कुमारी की गोद में मृत ईसा) स्वर्ग के शासक ईसा के जीवन की विविध घटनाओं, सन्तों के बलिदान, प्रमुख सन्तों के जीवन, देवदूतों आदि का अंकन हुआ है। इसके अतिरिक्त सम्राटों तथा संरक्षकों के व्यक्ति चित्र तथा उनसे सम्बन्धित विशिष्ट धार्मिक घटनाओं का भी अंकन किया गया है। मृत्यु का नृत्य तथा अन्तिम न्याय आदि के भी चित्र बनाये गये हैं। 
6) क्षेत्रीय प्रभाव- फ्रांस की कला में सौन्दर्य, शालीनता तथा प्रकृति प्रेम है। फ्लाण्र्डस, हाॅलैण्ड तथा बेल्जियम तथा प्रकृति प्रेम है। फ्लाण्र्डस, हाॅलैण्ड तथा बेल्जियम आदि की कला में शान-शौकत तथा प्रदर्शन-भावना है। स्पेन तथा पुर्तगाल की कला वर्णात्मक अधिक है। जर्मनी तथा मध्य यूरोप की कला में आकृतियों की विशालता तथा व्यंजनात्मकता है। इटली में फ्लोरेंस तथा सियना की कला में परिष्कृति, अभिव्यंजना तथा सवंदेनशीलता है। वेनिस में लयात्मकता का प्रभाव धार्मिकता के बजाए अधिक रहा है। 
वास्तुशिल्पः- गौथिक शैली के वास्तु की उत्तरी फ्रांस के पूजाग्रहों से शुरूआत मानी गई है। इसमें कुछ धार्मिक मठों ने भी सहयोग दिया। आरम्भ में नई पद्वित के बेसिलिका उपासना ग्रह बने। इनमें परस्पर सम्बन्धित कमानीदार पटाव का प्रयोग किया गया है। दीवारों के बजाए ऊँचे-2 भित्वि पक्ष बने। जिनकी छतों के भार तथा बाहर की और धक्के को रोकने तथा सहारा देने के लिए रक्षा पक्ष लगाये गये। इस प्रकार चर्च के भवन दीवारों से घिरे होने के बजाए ऊंचे-2 स्तम्भों से निर्मित जैसे और बहुत खुले प्रतीत होते थे। इनमें परस्पर सम्बन्धित कमानीदार पटाव का प्रयोग किया गया है। दीवारों के बजाय ऊँचे-ऊँचे भित्ति पक्ष बने जिनकी छतों के भार तथा बाहर की और धक्के को करोकने तथा सहारा देने के लिये रक्षा-पक्ष लगाये गये। इस प्रकार चर्च के भवन दीवारों से घिरे होने के बजाए ऊँचे-ऊँचे स्तम्भों से निर्मित जैसे और बहुत खुले हुए प्रतीत होते थे। 
ऊपरी मंजिल में रक्षा पक्षों के बीच से मार्ग भी बनाय दिये गये अतः इन्हें फ्लाइंग बटैªस कहां जाने लगा। सहारा देने वाले सभी निर्माण लम्बे करके नुकीले मेहरावों तक पहुँचा दिये गये हैं। इनके भड़कीले लाल, बैंगनी तथा हरे आदि रंग बाहर से आने वाले प्रकाश को रंगों में परिवर्तित कर एक आलौकिक तथा अवास्तविक वातावरण का प्रभाव उत्पन्न कर देते थे, मानों कोई चमत्कार हो गया हो। भवनों के प्रार्थना व भजनों हेतु निश्चित स्थान के ऊपर अनेक शंकु शिखर बनाये गये। इस प्रकार आध्यात्मिक तथा अतीन्द्रिय आनन्द को दृश्यमान रूपों में प्रस्तुत करने प्रयत्न किया गया। 
गौथिक भवनों की कमानीदार छतों के निर्माण में परस्पर काटते हुए चापों का प्रयोग हुआ है जिन्हें रिब्स, कहा गया है। इनसे उदर भाग में भी गोलाई छत चापाकार त्रिभुज की आकृति के चार पत्थरों से पाट दी जाती है। जिनके उदर भाग में भी गोलाई रहती है। पत्थरों के आधार पर दीवारों या स्तम्भों के शीर्ष पर टिक जाते है और पटाव के बीच का सारा धक्का चारों पत्थर ही बाँट लेते है। (गुम्बद निर्माण में जिस सिद्धानत का प्रयोग होता है, वही प्रकारन्तर से कमानीदार छत और नुकीले मेहराव में भी होता है)। 
यह संकेत किया जा चुका है कि गोल महराबों पर पटाव करने के बजाए नुकीले मेहराबों पर पटाव करने से छत का भार स्तम्भों अथवा भित्तिपक्षों पर आ गया जिसे रोकने के लिये बाहर रक्षा-पक्ष बनाये जाने लगे। इनमें पोल करके मार्ग भी बना दिये गये। (ये ऐसे लगते है कि मानों चर्च का भवन अपने अनेक हाथ दोनों ओर भूमि पर टिका कर बैठा हो जिससे कि भवन इधर उधर गिर न सके)। प्रायः भूतल के भवन के बाहर बरामदे तथा ऊपरी तल पर बट्रेस बनाये गये। 
12 वीं-13 वीं शर्ती के मुख्य चर्च द साइने, द एरनें, द ओइसे, द ऐबी चर्च आफ सेण्ट सेनी, कैथेड्रल आफ सेनलिस, नोयोन, रीम्स का सेण्ट रेमी, नोत्रो दाम नाम के कई स्थानों के चर्च, नार्मण्डी का लिसीओ, फ्रांस तथा एमीन्स कैथेड्रल है। 
14 वीं शर्ती में वास्तु हल्का हो गया, रिब्स अधिक छोटी बनने लगी, स्तम्भ अधिक सादा हो गये जिनमें केवल पुष्पों तथा स्तम्भों के अलंकरण शेष रह गये। बाहरी अलंकरण अधिक हो गया। 
फ्रैंच गौथिक वास्तु का प्रभाव सीरिया, साइप्रस, निम्नदेश, स्विटजरलैण्ड, स्पेन, पुर्तगाल, इंग्लैण्ड तथा इटली आदि पर भी पड़ा। गौथिक कला का जो विशेष उत्थान हुआ उसे उच्च गौथिक कहा जाता है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि सभी अलंकरण ऊध्र्वलय में बनाये गये है अतः इसे प्रलम्ब अध्याय भी कहा जाता है। सपाट रेखात्मक पैटर्न, उत्कीर्णनों को दबा-देने, लम्बवत् रेखाओं के समावेश, स्तम्भों के मेहराबों में विलय तथा युक्ति-संगत दीर्घा-विभाजनों आदि में इसकी मुख्य विशेषताओं को समझा जा सकता है। 
मूर्तिशिल्प- गौथिक युग के मूर्ति शिल्प में प्राचीन आलंकारिक पम्पराओं से मुक्त होकर प्रकृति की अनुकृति का प्रयत्न किया गया। मानव आकृति भी स्वतन्त्र अध्ययन का विषय बनी जिसमें शरीर के प्राकृतिक, अनुपात, शारीरिक भंगिमाओ, मुद्राओ आदि को धनत्व सहित प्रस्तुत करना आरम्भ हुआ। गहरे उत्कीर्णन से आकृतियाँ पृष्ठभूमि से पृथक करने की प्रवृत्ति पर्याप्त मुखरित हुई। फिर भी आकृतियाँ सामान्य पात्रों के समान है, उनमें व्यक्तिगत विशेषताओं को स्थान नहीं मिला है। उदाहरणार्थ सन्त जेरोम एक विद्वान जैसे, सन्त थिओदार एक युवा वीर जैसे हैं। इस युग में मूर्ति-संयोजन सरल हुए। बाहरी अलंकरण मूतियां द्वारा और गुम्बद का आन्तरिक अलंकरण रिलीफ में किया गया। मेहराबदार आलों में मूर्तियाँ रखी गयी। आरम्भिक मूतियाँ अधिक लम्बी तथा कठोर थी, वे शनैःशनै सौम्य होती गयी और भवनों के अनुरूप आदर्शीकृत भी। 
मानववादी भावना के कारण अभिप्रायों में सरलता और निश्चितता लायी, पूर्वी पशुओं, दैत्यों बर्बर रूपों को छोड़ दिया गया। कुछ मानक विषय भी निर्धारित हुए जैसे-शिशुईसा, कुमारी का अभिनन्दन, भव्यरूप में ईसा, पाप पर विजय, ऋतु-चर्या, राशियाँ, दर्शन तथा धर्मशास्त्र आदि। यह भाव व्यक्त करने का प्रयत्न किया गया कि समस्त सृष्टि पर अविनाशी ईश्वर की सत्ता है। 
गौथिक शिल्प में तकनीकी दृष्टि से पर्याप्त कुशलता है। आकृतियों की मुद्राओं और भावों की व्यंजक-क्षमता में वृद्धि हुई। उनमें लावण्य, काट-छाँट सन्तुलित भार तथा सम्भ्रान्तता आयी। वस्त्रों की सिकुड़नों तथा फहरान को सुन्दर रीति से व्यवस्थित किया गया। 
धर्माधिकारियों तथा संरक्षकों की प्रतिमाओं मेें सादृश्य पर अधिक बल दिया गया। धर्म प्रचार में मानवीय करूणा के तत्व को धनीभूत करने की दृष्टि से ईसा के कष्टों तथा सूली आदि को विशेष रूप से प्रस्तुत किया गया। उपासना गृहों के अन्तरिक भागों में कुमारी तथा सन्तों की, शिशु को देखती, या उसके साथ खेलती या स्तनपान कराती खड़ी या बैठी मेडोन्नाएँ सर्जित की गयी। मानव जीवन पर दृष्टि रखने वाले बीमारी, मृत्यु अथवा महामारी से रक्षा करने वाले सन्तों की प्रतिमाएँ भी बनी। 
फ्रांस की आरम्भिक गौथिक मूर्तियों में रोमनस्क तत्व अवशिष्ट थे। स्तम्भ प्रतिमाएँ भी बनती थी। 13 वी शर्ती के उपासना-गृहों में पेरिस के नोत्रदाम, आमीन्स तथा रीम्स कैथेड्रल प्रसिद्ध है। इनमें कुमारी का अंकन अत्यन्त कोमल भाव से किया गया है। रीम चाटेªस इंग्लैण्ड में गौथिक शैली के वृहदाकार पुतले बहुत मिले हैं जो तत्कालीन कलाभिरूचि के सूचक है। उत्तरी फ्रांस से प्रेरणा लेते हुए भी स्तम्भ-प्रतिमाओं का अभाव है। यहाँ सम्पूर्ण भवन को एक साथ देखने की प्रवृत्ति रही है अतः आकृतियों की गढ़नशीलता पर अलग से ध्यान नहीं दिया गया है। फिर भी कहीं-कहीं  सम्पूर्ण त्रिआयामी शिल्प मिल जाता है। 13 वीं शती में हेनरी तृतीय के संरक्षण में मुस्कराते हुए देवदूतों, सामाजिक विषयों, भयंकर पशुओं तथा प्राचीन अभिप्रायों का निरूपण किया गया है। 
रंगीन अलबास्टर शिल्प इंग्लिश कला की विशेष देन है। इसकी बड़े आकार की मूर्तियाँ बहुत लोकप्रिय हुई और ये अन्य स्थानों को भी भेजी गयी। इनके छोटे-छोटे पेनल भी निर्मित किये गये। इनमें वस्त्रों, आँखों, बालों तथा पृष्ठभूमि में ही रंग लगाये जाते थे। 14 वीं शती की नोर्टिंघम सिटी म्यूजियम मेडोन्ना इसका एक सुन्दर उदाहरण है। 15 वीं शतीं में अलबास्टर प्रतिमाओं का चरम उत्पादन हुआ। 
चित्रकला- फ्रांस-यहाँ की गौथिक कला में ऐतिहासिक विषयों के अतिरिक्त सेंट लुई का का जीवन चरित्र, शिशु, कब्रिस्तान में बने मृत्यु का नृत्य, सेण्ट मेरीटाइम में बने ईसा के बाल-जीवन के चित्र, साथ में अंकित नरक के दृश्य तथा अन्य स्थानों पर बने कुमारी के जीवन, सिंहासनासीन ईसा, सूली, सन्तों के बलिदानों, एण्ड्रयू आदि की गाथाओ, कुमारी का अभिषेक तथा समकालीन सम्राटों एवं ईसाई पादरियों आदि के चित्र प्राप्त हुए हैं। इनके अतिरिक्त स्थान-स्थान पर अंगूर-लताओं तथा गोल पदकों के आलंकारिक आलेखन भी चित्रित हुए हैं। फ्रांस की कला पर हाॅलैण्ड, फ्लाण्डर्स तथा बेल्जियम आदि की कला का भी प्रभाव पड़ा है। सामान्यतः फ्रांसीसी गौथिक कला की आकृतियों में भारीपन नहीं है, रेखाएँ कोमल तथा प्रभावपूर्ण हैं। प्रायः वृक्ष, वनस्पति पर्वत, मानवाकृति, वेशभूषा  आदि सभी वस्तुओं में यथार्थता का प्रयत्न किया गया है। इस शैली के अतिरिक्त अनेक चित्रों में रंगीन कांच का प्रभाव देखा जा सकता है। जैसे शिशु ईसा के जीवन-चरित्र में। निजी भवनों के चित्रों की शेली में दरबारी ठाट-बाट का प्रभाव मिलता है। कलाकारों ने चित्रों की सौन्दर्य-वृद्धि के हेतु सुनहरी पृष्ठभूमियों, चमकदार रंगों, शान-शौकत तथा आलंकारिक आलेखनों का प्रयोग किया है। अनेक चित्रकार शाही परिवारों तथा धर्माधिकारियों के व्यक्ति-चित्र अंकित करने में लगे रहे। पन्द्रहवी शती की कला में दृश्य-चित्रण एवं धार्मिक रहस्यात्मकता का विशेष प्रभाव रहा है। सपाट आकृतियों में उभार का प्रभाव लाने की दृष्टि से आकृतियों की सीमा-रेखा के साथ-साथ हल्की छाया का भी प्रयोग किया गया है तथा पीले रंग के स्थान पर चाँदी का पानी लगाकर चित्रों में बहुत अधिक चमक उत्पन्न की गयी है। 
पुस्तक-चित्रण फ्रांस में गौथिक पुस्तक-चित्रण कला रंगीन कांच की कला से प्रभावित होती रही किन्तु चित्रों के चारों ओर हाशियों में मनुष्यों, राक्षसों, पशु-पक्षियों अथवा आखेट-दृश्यों को अंकित किया जाता रहा। इन पर इंग्लिश कला का प्रभाव माना जाता है। 
फ्रांस में चित्रण सज्जा के क्षेत्र में बरगण्डी तथा बेरी के ड्यूक शासकों के संरक्षण में विशेष कार्य हुआ। बरगण्डी में ज्यों मैलूयल तथा आनरी बेलकोज और बेरी में आन्द्रे ब्यूनेव्यू लिम्बर्ग परिवार एवं ज्याँ फूके विशेष प्रसिद्ध चित्रकार हो गये हैं। लिम्बर्ग चित्रकारों ने वर्ष में महीनों का चित्रण किया। जिनमें प्रकृति का अच्छा अध्ययन किया गया है। साथ ही तत्कालीन सामाजिक जीवन एवं परिस्थितियों का भी सुन्दर चित्रण हुआ है। दृश्य-चित्रण कला को इन चित्रित पुस्तकों से बहुत प्रेरणा मिली है। रस्किन के मतानुसार पोल द लिम्बर्ग  प्रथम चित्रकार था जिसने सूर्य को आकाश में ठीक तरह से स्थान दिया। फूके को पहला महान फ्रांसीसी चित्रकार कहा गया है। उसकी आकृतियाँ पन्द्रहवी शती के बरगण्डी की ‘आधुनिक वेशभूषा’ पहने हैं। उसके कुछ व्यक्तिचित्र भी अच्छे बने पड़े है, जैसे ‘मदिरा का गिलास लिये व्यक्ति,’ ‘एटीन शिवेलिये’ तथा ‘प्रियतमा के साथ चाल्र्स सप्तम’ आदि। इस प्रकार फूके लघुचित्रों के साथ-साथ पुस्तकों के सज्जाकार तथा एक उत्तम व्यक्ति-चित्रकार के रूप में हमारे सामने आता है। 
रंजित कांच- फ्रांस में रंजित कांच कांच के प्राचीनतम नमूने आठवीं शती के एस्ने के कब्रिस्तान में एक दरवाजे में लगे कांच है। इनके अतिरिक्त सेण्ट डेनी के चर्च के रंजित कांच ही सबसे प्राचीन प्रतीत होते हैं। इनका पेरिस के नोत्रे दाम से सीधा सम्बन्ध है। चाटेªस कैथेड्रल के पश्चिमी द्वार की अदभुत सौंदर्य वाली खिड़कियाँ भी इसी से सम्बन्धित है। 
तेरहवीं शती में विशाल खिड़कियों में भित्ति-चित्रों को और भी छोटा कर दिया। इस समय के चित्रों को सौर टेपेस्ट्री कहा गया है। इनमें सुनहरी कथा, बाइबिल के गीत, इतिहास एवं कला-कौशल आदि विषयों का चित्रण हुआ है। पहले जहाँ लाल तथा नीली पृष्ठ-भूमि का अंकन होता था। वहाँ आगे चलकर बेंगनी रंग के कारण राजसी प्रभाव आने लगा। इस समय के गहरे रंगों में भी एक सौम्य प्रभाव है। चार्टेªस कैथेड्रल से ही इसका आरम्भ माना जाता है। प्रायः बैंगनी, गुलाबी, पीले, हरे तथा श्वेत रंगों का प्रयोग हुआ है। 
गौथिक युग में रंजित कांच की कला का पर्याप्त विकास हुआ है। ये कांच दरवाजों तथा खिड़कियों में जड़ दिये जातें जो दिन के प्रकाश में भवनों के आन्तरिक भागों में बड़ा ही रंगीन वातावरण उत्पन्न कर देते थे। 
फ्रांस के गौथिक चित्रकारों में ज्यान प्यूसिल ज्यान द ओर्लियेन्स एटीन लैंगलीयर कोलार्ड द लाओन, निकोला फ्रोमेण्ट, ज्यान बैलेगेम्ब, जेरार्ड डेविड, क्वेण्टिन मैसी, ज्यान फूके, एंजर्स, ज्यान बूर्डिशन, मास्टर आफ मोलिन्स तथा होनोर के नाम प्रमुख हैं। ज्श्सप पुसिल तेरहवी शर्ती के अन्त तथा चैदहवी शर्ती के आरम्भ का कलाकार तथा। 
स्विटजरलेण्ड- यहाँ की कला प्रायः फ्रांस से प्रभावित है। 
प्रमुख चित्रकार
फ्लोरेन्स के चित्रकार
1) सिमाबुए यह इटली के फ्लोरेण्टाइन स्कूल का प्रसिद्ध कलाकार था। इसे इटली की चित्रकला का पिता कहा जाता है। यूरोप की आधुनिक चित्रकला के इतिहास में प्रायः सर्वप्रथम इसी का नाम लिया जाता है। कहा जाता है कि यह जिओत्तो का गुरु था। कला के क्षेत्र में इसने पर्याप्त मौलिकता दर्शायी और रूढि़यों का बहिष्कार किया। सिमाबुए की प्रसिद्धि का प्रधान कारण विख्यात कवि दान्ते द्वारा उसका उल्लेख है जिसमें उसने कहा है कि ‘‘सिमाबुए समझता था कि कला के क्षेत्र में वही सबसे आगे है, किन्तु जिओत्तो ने उसका स्थान ले लिया था’’। बाइजेण्टाइन शैली में वस्त्रों की सिकुड़नें दर्शाने वाली रेखाएँ कठोर होती थी किन्तु सिमाबुए ने उन्हें शिथिल कर दिया। सिर को एक ओर झुका हुआ बनाया और अंगुलियों को कुछ चंचलता प्रदान की। सिमाबुए ने आकृतियों को पर्याप्त स्वाभाविक बनाने की चेष्टा की है। सम्भवतः सिमाबुए की एकमात्र अवशिष्ट प्रमाणिक कृति  पीसा के उपासना-गृह में अंकित सेण्ट जोन का विशाल मणिकुट्टिम चित्र है जिसमें उसने 1302 ई0 में कार्य किया था। इसके अतिरिक्त अन्य चित्र असीसी तथा उफीजी में भी उसके द्वारा अंकित कहे जाते हैं जिनमें मेडोन्ना की आकृति प्रधान रूप से चित्रित हुई है। असीसी से ही इटली में गौथिक शैली काआरम्भ माना जाता है। रोम, पीसा तथा असीसी के चर्चों में ही उसने कार्य किया था। सिमाबुए के पश्चात् इटली की कला में वास्तविक गहराई तथा उभार और परिप्रेक्ष्य का प्रभाव दिखाने का कार्य जिओत्तो ने किया। 
2) जिओत्तो- जिओत्तो के बारे में यह कहा जाता है कि अपने पिता की भेड़ों की देखभाल करते समय वह उनके चित्र अंकित कर देता है। इसी मार्ग से जाते हुए सिमाबुए ने उसे देख लिया और उसकी प्रतिभा को पहचानां सिमाबुए जिओत्तो के पिता की आज्ञा से उसे एक भित्ति पर सन्त फ्रान्सिस का जीवन चित्रित करने को कहा। वहाँ उसने जिस शैली में कार्य किया उससे उसे रस्किन के शब्दों में, ‘‘परम्परा, आदर्शवाद तथा औपचारिक नियमबद्धता को छोड़कर प्रकृतिवादी साहसी कलाकार’’कहा गया है। उसने रोम में भी कार्य किया और ‘‘बिवेलिंग आफ सेण्ट फ्रांसिस’’ तथा हेरोड्स बर्थ डे फीस्ट’’ नामक चित्र अंकित किये, किन्तु उसके सर्वश्रेष्ठ चित्र पादुआ के एरीना चेपिल की भित्तियों पर अंकित है। एरीना चेपिल में सन्त जोशिम, सन्त अन्ना, कुमारी मरियम तथा ईसा के जीवन चरित्रोें का अंकन जिओत्तो ने किया था। सम्भवतः ये चित्र 1306 अथवा 1309 ई0 में पूर्ण हुए। इन चित्रों में अंकित आकृतियों में अधिकाधिक घनत्व, स्वाभाविकता एवं नाटकीयता के दर्शन होते है। 
1320 ई0 के लगभग फ्लोरेन्स के सन्त क्रोचे नामक स्थान के चार कक्षों का चित्रालंकृत करने के हेतु जिओत्तो को आमंत्रित किया गया। इसमें से सनत फ्रांसिस, सन्त जोन द बैप्टिस्ट, सन्त जोन इवांजलिस्ट तथा स्वर्गारोहण के चित्र ही तीन कक्षों में शेष हैं। इनमें गौथिक मूर्तिकला का किंचित प्रभाव दृष्टव्य है। 1329-33 ई0 के मध्य जिओत्तो ने नेपिल्स में भी कार्य किया था किन्तु अब उसमें से कुछ भी शेष नहीं है। 
जिओत्तो की आकृतियाँ व्यक्तिगत विशेषताओं एवं मानवीय भावना से परिपूर्ण, संयोजन अधिक समृद्ध हैं। उनमें हल्केपन तथा उल्लास की ओर झुकाव है तथा चित्रण में प्रकृति की अधिकाधिक अनुकृति का प्रयत्न है। चैदहवी शतीं के आरम्भ में तत्कालीन कला की स्थिति के अनुसार वह अपने समय के शक्तिशाली इटालियन मस्तिष्क और हाथ वाला कलाकार था। आलोचकों का मत है कि गड़रिया होते हुए भी उसके द्वारा किया गया भेड़ों का अंकन आधुनिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है। जिओत्तो द्वारा अंकित भवनों तथा वृक्षों की आकृतियाँ यथार्थ के निकट होती हुई भी बहुत छोटे आकारों में है। वे मानवाकृतियों केे अनुसार न सही परिप्रेक्ष्य में है और न सही अनुपातों में है। अपने युग में उसका यह यथार्थवाद लोगों को विस्मयकारी लगा था। इसी से मैसेच्चियों ने कहा था कि प्रकृति में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे जिओत्तो चित्रित न कर सकता हो, कि उसमें केवल सादृश्य ही न हो बल्कि वह चित्र न लगकर वास्तविक वस्तु ही प्रतीत हो। 
जिओत्तो वास्तुकार भी था। 1334 ई0 में उसे कैटोड्रल के निर्माण का प्रधान वास्तुशिल्पी बना दिया था। फ्लोरेंस में इसने दो भवन आरम्भ किये थे। कैथेड्रल का पश्चिमी पुरोभाग तथा निकट स्थित टावर। यह टावर आज भी सुरक्षित है। 8 जनवरी 1337 को जिओत्तो की मृत्यु हुई। 
जिओत्तो द्वारा अंकित अनेक पेनल-चित्र विश्व के कई संग्रहालयों जैसे फ्लोरेन्स, म्यूनिख, पेरिस, बोलोना, लन्दन तथा वाशिंगटन आदि में सुरक्षित है। कुछ चित्रों में उसके सहायकों ने भ्ंाी कार्य किया। उफीजी की मेडोन्ना, बर्लिन की कुमारी तथा फ्लोरेन्स का ईसा की सूली का चित्र उसी की कृतियाँ है। 
3) आन्द्रिया आॅरकेना- जिओत्तो के पश्चात् कार्य करने वाला फ्लोरेन्स का प्रसिद्ध कलाकार आरकेना था और चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला एवं काव्य कला में निपुण था। 1343/44 में वह चित्रकार संघ तथा 1352 ई0 में शिल्पी संघ का सदस्य बना। लंदन की नेशनल गैलरी में उसका प्रसिद्ध चित्र ‘‘कुमारी का सिंहासनारोहण संग्रहीत है। आरकेना ने जिओत्ता के यथार्थवादी पक्ष को विकसित न करके मनोवैज्ञानिक पक्ष का ही परिष्कृत करने का प्रयत्न किया। इसका उदाहरण फ्लोरेन्स-स्थित सेन्ट मारिया नोवेल्ला के स्त्रोजी चेपिल में अंकित विशाल भित्ति-चित्र है। पृष्ठ-भूमि बाइजेण्टाइन परम्परा में सुनहरी रंग से अंकित की गयी है। यद्यपि उसने जिओतो की शैली को ही आगे बढ़ाया पर उसका झुकाव घटना के नाटकीय प्रस्तुतीकरण की अपेक्षा भाव की अभिव्यक्ति और गहरी धाम्रिक अनुभूति की ओर अधिक था। वह सच्चाई और सरलता का पक्षपाती था। 1369 ई0 में वह रोगग्रस्त होकर मर गया। उसकी अपूर्ण कृतियों को अन्य कलाकारों ने पूर्ण किया। 
1) दूच्चिओ (1255/60-1318/19 ई0)- सिएना का प्रथम महान चित्रकार था जिस प्रकार फ्लोरेंस की कला में जिओत्तो का महत्व है उसी प्रकार सिएना की कला में दूच्चिओ का है, फिर भी उसमें जिओत्तो के समान स्वाभाविकता ही शक्तिशाली प्रवृत्ति नहीं है, यद्यपि दोनों में परिप्रेक्ष्य के नियमों की कुछ समानताएँ है। दूच्चिओ को सिएना की चित्रकला का पिता का जाता है। जिओत्तो की भाँति क्रांति न करके दूच्चिओ ने शताब्दियों के परिश्रमसे विकसित बाइजेण्टाइन कला की समस्त उपलब्धियों को समन्वित करने का ही प्रयत्न किया। इनमें उसने तत्कालीन ईसाई धर्म की मानववादी भावना कौ और जोड़ दिया। 1278, 79 तथा 80 ई0 में उसने अनेक चित्र बनाये। फ्लोरेंस के स्टा मारिया नोवेल्लाा के एक चर्च के हेतु उसने अनेक चित्र बनाये। फ्लोरेंस के स्टा मारिया नोवेल्ला के एक चर्च केि हेतु उसने मैडोन्ना का एक विशाल चित्र अंकित माना है। 1308 से 1311 तक उसने सिएना के उपासना-गृह के लिए एक चित्र अंकित किया। इस चित्र में मैडोन्ना अपनी गोद में शिशु ईसा को लिए सिंहासन पर आसीन पर आसीन है, चारों ओर अनेक सन्त खड़े है और ऊपर देवदूत एकत्रित है। ऊपर तथा नीचे ईसा, मेरी तथा सन्तों की जीवन गाथाएँ चित्रित है। सामने की आकृतियों में घनत्व, चारित्रिक विशेषताएँ आदि बड़ी कुशलता से अंकित है। और इनमें नवीनता तथा मौलिकता भी है। पीछे के छोटे दृश्यों में जीवन-गाथाओं को भी सरलता से प्रस्तुत किया गया है। 
2) साइमोन मार्तिनी 1284-1344ई0- यह सिएना का दूसरा प्रसिद्ध कलाकार था और और दूच्चिओ का शिष्य था। इसने केवल रेखात्मक लय की दृष्टि से रेखा चित्र का विकास किया। दूच्चिओ की परिष्कृत रंग-योजनाओं को भी उसने विकसित किया। जिओवान्नी पिसानो की मूर्ति-कला एवं फ्रैंच गौथिक कला से भी वह विशेष प्रभावित था। जिस प्रकार दूच्चिओं ने सिएना के चर्च हेतु मैडोन्ना का एक विशाल चित्र अंकित किया था उसी प्रकार मार्तिनी ने सिएना टाउनहाल के लिए इसी विषय को चित्रित किया था। इससे ज्ञात होता है कि आरम्भिक काल में वह दूच्चिओ से पर्याप्त प्रेरित हुआ, किन्तु उसमें जो गौथिक प्रवृत्ति थी वह उसकी अगली कृति, ‘‘संत लुई’’ में स्पष्ट उभर कर आई। यह नेपिल्स में निर्मित हुई थी। इस समय नेपिल्स फ्रैंच शासन में था और वहाँ के शासक ने मार्तिनी को नवीन शैली में चित्रांकन के हेतु आमंत्रित किया था। इसी के उपलक्ष्य में मार्तिनी ने उक्त सन्त के चित्र की रचना की थी। इस समय से उसकी कला दरबारी कला कही जाती है जो परिष्कृत तथा सुरूचिपूर्ण है और फ्रांसीसी प्रभाव से युक्त है। 
अन्य स्थानों के चित्रकार-
इसके अतिरिक्त पीसा, सिसली, रोम, अब्रुज्जी, बेलोना, वेनिस, पादुआ, वेरोना, लोम्बार्डी आदि में भी अनेक कलाकृतियाँ गौथिक शैली में बनी किन्तु इनमें से अधिकांश नष्ट हो चुकी हैं। बोलोना में वाइटेल कैवल्ली तथा वेनिस में पाओलो वेनोजिओनो प्रमुख चित्रकार हो गये हैं। 1380 ई0 के आसपास उत्तरी इटली की गौथिक कला में एक बार पुनः उन्नति का ज्वार आया। इस समय के कलाकारों में पिसानेल्लो, जेण्टाइल द फेब्रिआनों, स्टीफनो दा जेवियों एवं जिओवान्नी दा ग्रासी नाम प्रमुख है। इनकी कलां में भव्यता एवं शान-शौकत के साथ-साथ स्वाभाविकता भी है। 


2013
एसाइनमेंट (एम.ए.प्रथम सेमेस्टर)  
भरतमुनि का रस सिद्धान्त
शबनम 
---------------------------------
परिचयः
भारतीय सौन्दर्यशास्त्र में रस केन्द्रीय महत्व रखता है। कला चाहे कोई भी हो - नाटय, काव्य, संगीत, वाद्य या चित्रकला रस सभी में व्याप्त है। सभी का सार है। रस शब्द का शुद्ध पर्यायवाची नहीं मिलता। कहीं इसे त्मसपेी (आस्वादन) ज्ंेजम (स्वाद) डववक (मनोभाव) कहा परन्तु इनव सभी में इस शब्द का वास्तविक भाव नहीं है।
उपनिषद में रस शब्द का प्रयोग आनन्द और आनन्द उपभोग के लिए किया गया इस प्रकार रस आनन्द और सौन्दर्य को लगभग एक जैसे अनुभव की कोटि में रखा गया। भारतीय सौन्दर्य शास्त्र में रस सिद्धान्त के पुरोधा भरत मुनि माने जाते हैं। 
भरत मुनि ने इस सिद्धान्त नाट्यशास्त्र के रूप में दिया क्योंकि नाट्य को मौलिक और व्यापक माना जाता है। इसमें दृश्य, श्रव्य, अभिनय आदि सभी अंग सम्मिलित थे। नाट्यशास्त्र से सम्बन्धित होने पर भी इसका स्वरूप इतना व्यापक था कि अन्य सभी कलाओं में इसे स्वीकृति मिली। नाट्यशास्त्र में भारतीय सौन्दर्यशास्त्र का वास्तविक रूप प्रकट होता है। नाट्य शास्त्र में रस, सौन्दर्य के मूल तत्व, विविध पक्षों एवं अंगो का विस्तृत और गहन अध्ययन मिलता है। किन्तु इन सभी का बीजमन्त्र माना गया है - रस।
रस क्या है?
रस सिद्धान्त को समझने से पहले यह जानना आवश्यक है कि रस क्या है? इस संस्कृत साहित्य का अति प्राचीन एवं महत्वपूर्ण शब्द है। ये वेद, उपनिषद पुराणों से लेकर चला आ रहा है। संस्कृत भाषा में मधुर, सौन्दर्य, आनन्द, चमत्कार, औचित्य आदि को रस का सामानार्थी माना गया। रस का व्युत्पत्ति संस्कृत की रस धातु से मानी गई। इसका शाब्दिक अर्थ है खींचना या खींचकर निकालना, निचोड़ना, इसी से रस शब्द को निम्न अर्थों में प्रयोग किया गया।
पदार्थो का रसः
स्वाद, खट्टा, मीठा, कड़वा, कसैल आदि जो वस्तु में निहित है।
पदार्थों का निचोड़ः
जैसे अनार का रस, नींबू का रस आदि यह किसी फल, सब्जी आदि को निचोड़कर निकाला गया द्रव्य है। यह पदार्थ का सार है।
आयुर्वेद में रसः
पारद या पदार्थ का सार-गुण या शक्ति, आयुर्वेद में रस को एक और अर्थ में भी लिया गया है। यह शरीर के अन्दर पाई जाने वाली ग्रन्थियों आदि के स्त्राव को भी बताता है। (जिन्हें हम हारमोन्स नाम से जानते हैं।) जिन पर शरीर का विकास निर्भर होता है।
साहित्य में रसः
साहित्य में रस का अर्थ है आस्वादन-आनन्द उठाना। यह रस करूण रौद्र या वीभत्स भी हो सकता है। परन्तु मन को उसका बोध या अनुभव होता है। काव्य रस का पान, भक्ति-रस या मोक्ष रस - यह आत्मिक आनन्द का अर्थ देता है अर्थात आत्मा द्वारा आस्वादन आत्मा का भीतरी आन्दोपभोग।
सभी अर्थों को देखने से पता चलता है कि सभी में किसी न किसी रूप में आस्वादन चखना या उपभोग करने का अर्थ व्याप्त है। यह बाहरी शारीरिक इन्द्रियों, रसना, जिह्वा द्वारा ग्रहण करना हो जैसा प्राकृृतिक रसों में या मन द्वारा ग्रहण करना हो, जैसे साहित्य में अथवा आत्मा द्वारा उपभोग करना हो जैसे भक्ति या मोक्ष में।
इतिहास की दृष्टि से देखें तो रस शब्द का प्रयोग सबसे पहले वेदों में मिलता है। वहाँ यह वनस्पति आदि के निकाले गए रस का प्रयोग हुआ। जैसे-सोम रस, वेदों में इसका व्ययवहारिक उपयोग वाक्य रस या काव्य रस के रूप में भी हुआ।
उपनिषद में रस का अति सूक्ष्म रूप में प्रयोग किया गया। वहाँ वह आध्यात्मिक रूप में ब्राह्मनन्द या आत्मा के आनन्द के रूप में आया। प्राणों का अंगो का रस या सार भूत तत्व भी माना गया तैत्तिरीय उपनिषद में स्वयं ब्रह्म को ही रस रूप कहा गया। छान्दोग्योपनिषद में आठ प्रकार के रसों का वर्णन है। इसमें रसों का क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म रूप में ले जाने की प्रक्रिया है। यह इस प्रकार है:-
‘‘इन भूतों का रस प्रथ्वी है। प्रथ्वी का रस जल है। जल का रस उस पर निर्भर का रस ऋचा है। ऋचा का रस साम है। साम का रस उदगीथ है। भूत-प्रथ्वी-जल-औषधियाँ-पुरूष-वाणी-ऋचा-साम-उदगीय उपनिषद में रस का प्रयोग द्रव, द्रव की पोषक शक्ति-ऊर्जा व आलहाद के रूप मेें हुआ। इस प्रकार आहवादय एवं ऊर्जा के अर्थ में भी रस का विकास हुआ। सोम रस से जुडज्ञ़ा होने के कारण रस का अर्थ आनन्द, मस्ती, तन्मयता, चमत्कार आदि हुआ। वात्स्यायन के कामसूत्र की रचना लगभग 600 ई0पू0 हुई। इस काल तक शब्द रस के शास्त्रीय अर्थ का विकास हो चुका था। कामसूत्र में रस रीति, प्रीति, राग, वेग आदि अर्थों मंे आया। माना जाता है कि भरतमुनि का काल चैथी शताब्दी ई0पू0 रहा। इस प्रकार का शास्त्रीय रूप भरतमुनि से लगभग दो शताब्दी पूर्व से चला हा रहा था।
लगभग चैथी शताब्दी ईसापूर्व में भरतमुनि ने अपना प्रसिद्ध ‘रस सिद्धान्त‘ दिया और वह सिद्धान्त इतना पूर्ण, इतना प्रमाणिक है कि उसे ठीक उसी रूप में आज तक न केवल नाट्य, वरण सभी ललित कलाओं में स्वीकार किया जा रहा है।
भरतमुनिः
नाट्यशास्त्र के जनक भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के प्रणेता रहें। डा0 मनमोहन घोष ने इनका काल 500 ई0पू0 बताया। इन्होंने नाट्यशास्त्र की अंग्रेजी टीका प्रकाशित की। भरतमुनि ने स्वयं कुछ नाटय लिखे व खेले ‘‘त्रिपुरदहन‘‘, ‘‘अमृत मंथन‘‘, लक्ष्मी स्वयंवर आदि।
नाम भरत पर भी दो मतभेद है कि नाट्यशास्त्र के गुरू एक भरत थे या एकाधिक भरत कई हुए एक दशरथ के पुत्र, भारत के प्रथम सम्राट, जिनके नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ा। तीसरे जैनियों की परम्परा में बाहुबली के भाई। नाट्यशास्त्र में एक वरिष्ठ तथा एक कनिष्ठ भरत है। नाट्यशास्त्र में यह भी आता है कि भरत नाट्यशास्त्र को स्वर्ग से लाए और उसे सौ पुत्रों को सौंप दिया।
नाट्यशास्त्र की भाषा-गद्य व पद्य देखने से भी ज्ञात होता है कि उसमें कई भिन्न व्यक्तियों द्वारा लिखी गई कई परतों सी है। जो अलग काल में लिखी गई होगी। नाट्यशास्त्र का सबसे प्रमाणिक रूप वह है जिसकी टीका अभिनव गुप्त ने 996-1000 ई0 के मध्य में की। इस ग्रन्थ का नाम ‘‘अभिनव भारती‘‘ है। यह दो भागों में है।
नाट्यशास्त्र एक वृहतकोष रूपी ग्रन्थ है। इसमें 36 या 37 अध्याय है जो श्लोकों के रूप में लिखे गये हैं। इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। नाट्य की उत्पत्ति स्वर्ग से प्रथ्वी पर लाने से, मंच सज्जा, मंडप की माप, नृत्य, संगीत आदि सहायक कलाएं, नायक-नायिका, रस-भाव, गुण-दोष आदि का विशद विवरण दिया गया है। सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण रस सिद्धान्त है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में स्वयं कहा कि ऐसा कोई शिल्प, विज्ञान, कला नहीं है। जो नाट्यशास्त्र के बाहर है अर्थात सभी कलाओं (उस समय की) का समावेश नाट्य में है।
भरतमुनि का रस सिद्धान्तः
भरतमुनि के अनुसार-भरतमुनि का काल चैथी शताब्दी ई0पू0 के बीच रहा है। परन्तु वह विचार और भारतीय परम्परागत विचार के प्रति निष्ठावान रहे हैं। उन्होंने उघात से हटकर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया है। इस सन्दर्भ में उन्होंने लोक और लोग धर्म को विशेष महत्व दिया है। कलाकृति भारतीय विचार के अनुसार सृजन है। अनुगति नहीं है। भरतमुनि का नाट्य नृत्य पर ही स्थापित किया गया है। भरतमुनि के सिद्धान्त के कुछ तत्व इस प्रकार हैं। कला नृत्य है और वह स्थिति विशेष में भावों और गतिविधि के मंच पर इस प्रकार प्रदर्शित करना है कि सहृदय उसका सप्रेक्षण हो सकें। सहृदय का तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसके कान और आँख मंच दृश्य के प्रति प्रतिक्रिया कर सकें।
कला अनुभव केवल जानना ही नहीं है बल्कि मंच पर उपस्थित दर्शकों को अनुभूति करा सकें। रस वह अनुभूति है। जो मंच पर रचे नाटय द्वारा दर्शक को सप्रेक्षित कर सकती है। वह मनोवैज्ञानिक स्पंदन है। जो मन और देह द्वारा नाटक के प्रति घनिष्ट होता है अर्थात स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव मिलकर रस निस्पत्ति होती है। कला नाट्य है और नाट्य सम्प्रेक्षण है व सांकेतिक या प्रतीक भाव के रूप में हो सकता है या वह चिह्न, वर्ण, तन, गतिविधि, नृत्य और संवाद द्वारा व्यंजित कर सकता है। यह दर्शक के विचार स्मृति और इच्छाओं को उद्धेलित कर भाव सम्प्रेक्षण करता है। अतः जो कला सम्प्रेक्षण नहीं कर सकती वह सौन्दर्य विहीन है।
यह सिद्धान्त भरतमुनि द्वारा रचित ग्रन्थ नाट्यशास्त्र की रचना का समय लगभग चार सौ साल ई0पू0 माना जाता है। भरतमुनि से पहले ही रस के शास्त्रीय अर्थ का विकास हो चुका था और स्वयं भरतमुनि ने भी अपने ग्रन्थों में अपने पहले आचार्यों का उल्लेख किया। अपने पूर्व चली आती विचारधारा को ही उन्होंने संकलित कर व्रहदाकार दिया।
भरतमुनि के अनुसार - नाट्य वेद के प्रणेता स्वयं ब्रह्म है जिन्होंने देवताओं के मनोरंजन और ध्यान भजंन के लिए नाट्यशास्त्र की रचना की।
उनके अनुसार नाटक का उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन है। भरतमुनि ने माना कि रस की अवधारणा उन्होंने अर्थवेद से ली। इसके अतिरिक्त अपने से पूर्व के आचार्यों आदि के नाम दिये हैं। दुहिण, ब्रह्म, सदशिव और तण्डु, नांद, नन्दिकेश्वर, वासुकि, कुशाश्व, व्यास इत्यादि।
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में क्या है?
छठे व सातवें अध्याय में रस का पूर्ण विवरण अंग उपागो सहित किया है।
नाट्य को वाड.मय का श्रेष्ठ रूप माना गया और रस उसका प्राण।
रस के अंग रस की प्रक्रिया, रस-संख्या, रस के अधिकारी, रस का स्वरूप, रसों का पारास्परिक सम्बन्धों का विशद् विवेचन है। 
रसों का वर्ण रंग और देवता भी बताए गए हैं और श्रृंगार रस का वर्ण श्याम और श्रृंगार के देवता विष्णु, रौद्र का वर्ण लाल और देवता रूद्र आदि। 
भरतमुनि के ग्रन्थ का नाम ही नाट्यशास्त्र है। उन्होंने अपनी सारी विवेचना नाट्य के सम्बन्ध में की उनके अनुसार नाट्य का हृदय रस है और परिणति भी रस है। रस नाटय का काव्य का सार है। नाटय में नृत्य, संगीत, मण्डप रचना, चित्रकला आदि का समावेश होने से इन कलाओं का विवेचन भी इनके ग्रन्थ में है। इसे मानना पड़ता है कि भरतमुनि ने नाट्य के माध्यम से सारी कलाओं का निरूपण किया।
अब से लगभग ढाई हजार साल पहले प्रतिपादित रस सिद्धान्त संसार का पहला मनोविज्ञान आधारित सौन्दर्य सिद्धान्त है क्योंकि इन्होंने रस को अनुभव माना जो दर्शक के मन में है। इन्होंने मन की चित्रवृत्तियों को अलौकिता प्रदान करने के लिए गुणों में रूपांतरित किया। भरतमुनि ने नाट्य माध्यम की चित्र इकाई को केन्द्र मानकर सौन्दर्य-बोध अनुभव (।मेजीमजपब म्गचमतपमदबम) की नई निष्पत्ति दी। यह अरस्तु के विवेचन सिद्धान्त से भिन्न है। यहाँ भावों को बाहर निकालकर आत्मा को शुद्ध किया जाता है। जैसे-भय या क्रोध को नाटक द्वारा निकालकर इसके विपरीत भरत ने रस की निस्पत्ति रसास्वाद और दार्शनिक मोक्षपरक आनन्द में रूप में की। 
रस कितने हैं?
प्राचीन परम्परा को दुहिण के अनुसार आठ रस हैं। पर वासुकि ने नवां रस ‘शान्त‘ भी माना। भरतमुनि ने आठ रस स्वीकारें। इन्होंने आठ रसों के साथ 8 स्थायी भाव, 33 संचारी भाव और 8 सात्विक भावों को मान्यता दी। भावों के साथ स्थायीभाव ऐसे हैं। जैसे राजा वह उसके सहचर। विभाव को रस का कारण माना।
भरतमुनि का निरूपणः
अपने सारे रस सिद्धान्त का निरूपण भरतमुनि ने एक सूत्र द्वारा किया।
तत्र विभावानुभाव व्यभिचारी सर्योगादृस निष्पत्तिः
यह सूत्र मूल रूप से रस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में है। यह बताता है कि विभाव, अनुभव और व्याभिचारी भावों के संयोग से रस निष्पत्ति होती है। इस प्रकार यह सूत्र रस की उत्पत्ति के विषय में बताता है। उसके स्वरूप के विषय में नहीं पर आगे चलकर इसी सूत्र में रस के स्वरूप की भी खोज की गई। ऊपर से देखने में यह एक सरल और छोटा सूत्र हैं पर इसके अर्थ गूढ हैं इसको ठीक प्रकार से समझने के लिए भाव-विभाव, अनुभाव आदि को समझना होगा।


भरतमुनि के अनुसार रस निष्पत्ति

रस निष्पत्ति


भाव   विभाव अनुभाव



स्थायी संचारी आलम्बन उद्दीपन आंशिक

अथवा व्यभिचारी वाचिक
आर्हाय
सात्विक


भावः

भाव मन की तरंग है। यह मन के भावनात्मक पक्ष से सम्बन्धित है। ये काव्य के अर्थ का भावन (महसूसना) करती है। भाव के लिए वाणी, अंग रचना एवं अनुभूति साधन है। भाव के बिना रस नहीं और रस के बिना भाव नहीं। ये दोनों एक-दूसरे पर आधारित है और एक-दूसरे को प्रकाशित या अभिव्यक्त करते हैं। ये स्थायी भाव, संचारी भाव-विभाव एवं अनुभव के साथ मिलकर उद्दीप्त होते हैं और रस के रूप में बदल जाते हैं।
भाव के दो रूप हैं-स्थायी और संचारी या व्याभिचारी भाव।
स्थायीभावः
स्थायीभाव रस का मूल है। ये मानव हृदय के मूल संस्कार के रूप में सदैव वर्तमान रहते हैं इन्हें कोई भी बाहरी या भीतरी कारण या विरोध कभी मिटा नहीं सकता इसलिए स्थायीभाव मानवमात्र के मन में रहते हैं। प्रायः यह शांत रहते हैं पर बन में उसी तरह व्याप्त होते हैं जैसे मिट्टी में गंध, उचित आलम्बन पाकर ये चचंल हो उठते हैं। अंकुरित होकर जब ये व्यक्त होते हैं तब रस कहे जाते हैं। किसी भी दूसरे रस या कारण ये मिटाये नहीं जा सकते। ये अन्य भावों को अपने साथ मिला लेते हैं। भरतमुनि के अनुसार स्थायीभाव आठ और प्रत्येक के रस आठ हैं। 
स्थायीभाव और रसः
स्थायी भाव रस
1. रति श्रृंगार
2. हास हास्य
3. शोक करूण
4. उत्साह वीर
5. क्रोध रौद्र
6. भय भयानक
7. जुगुप्सा वीभत्स
8. विस्मय अद्भुत
9. निर्वेद शांत (वाद के आचार्यों ने माना)


संचारी या व्याभिचारी भावः

मुख्य भावों के पोषक अनेक बदलते भाव व्याभिचारी भाव कहलाते हैं। स्थायी भावों की सूचना प्रेक्षण को मिलती हैं और वहीं रस की निष्पत्ति करता है। इस प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए भरतमुनि ने अनेक विधियाँ व उपमायें दी हैं। स्थायी भाव रस के सूक्ष्म में होते हैं। धनंजय के अनुसार स्थायी भावों की तुलना समुद्र से की है। जैसे समुद्र में लहरे कलोर करती हैं तो समुद्र विचलित नहीं होता अपितु इन तरंगो को अपने अन्दर आत्मसात कर लेता है। ठीक उसी प्रकार स्थायीभाव भावों को अपने अन्दर आत्मसात कर लेता है। रसास्वादन को साधारणीकरण भरतमुनि ने सांस्कृतिक रूप में साधारणीकरण का सिद्धान्त समझाया है कि स्थायी संचारी तथा सात्विक आदि ही काव्य में रस सामान्य गुणों के हेतु उन्हीं को सामान्य गुणों के योग से रस निष्पत्ति होती है।
साधारणीकरण के सिद्धान्तों को ध्यानपूर्वक अध्ययन से ही समझा जा सकता है कि भाव को सामान्यतः जो किसी जाति के नाम से प्रदर्शित नहीं हुआ करता अपितु व्यक्ति या विशिष्ट से निर्दिष्ट किया जा सकता है। काव्य या कला के अत्याचारी का वर्णन चित्रण को क्रोध भाव को परिपक्व कर सकता है। स्थायी भाव तो मन में स्थायी है। पर संचारी अस्थायी होते हैं। ये आते हैं स्थायी भावों को बल देते हैं ओर लोप हो जाते हैं। संचारी शब्द का अर्थ है साथ-2 चलना। ये अकेले नहीं होते स्थायीभावों के साथ चलकर उन्हें प्रबल बना देते हैं। इन्हंे व्यभिचारी भाव इसलिए कहा जाता है क्योंकि एक ही संचारी भाव कई स्थायी भावों का सहायक होती है। भरतमुनि ने संचारी भावो की संख्या 33 माना। 
विभावः
आचार्य शुक्ल के अनुसार, ‘‘विभाव का अभिप्राय उन वस्तुओं या विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है।
भरतमुनि के अनुसार, ‘‘विभाव वाणी या अंगो के आभ्रित अनेक अंगो का विभावन अथवा अनुभव कराते हैं। इसलिए ये विभाव कहलाते हैं। आचार्य विश्वनाथ ने विभाव की परिभाषा देते हुए लिखा, ‘‘संसार में रति, हास, शोक‘‘ आदि स्थायी भावों को जो जाग्रत कराने वाले होते हैं। वे जब काव्य या नाटक में वर्णित होते हैं विभाव कहलाते हैं। 
इस प्रकार विभाव का अर्थ हुआ कारण-‘‘मनुष्यों मंे स्थित भावों को जाग्रत करने वाले कारण विभाव कहलाते हैं।
विभाव के दो भेद हैंः
आलम्बनः आलम्बन का अर्थ है सहारा जिस सहारे से या कारण से स्थायी भाव जाग्रत हो वह आलम्बन जिसमें जाग्रत हो; वह आश्रय कहलाता हैं जैसे आलम्बन है महिला जिसमें भाव जाग्रत हो आभ्रय है।
उद्दीपनः उद्दीपन वे कारण, सामग्री, साज-सज्जा या साधन है जो स्थायी भाव को जगाते हैं। जैसे वीर रस भाव को जगाने में रण-भेरी, हुंकार, शत्रु-सेना आदि। ये दो प्रकार के हो सकते हैं।
उक्तियां या चेस्टाएं भी विभाव हो सकती हैं।
बाहरी वातावरण-जैसे श्रृंगार के उद्दीपन के लिए प्रकृति वर्णन, मोर, पक्षी, बादल आदि।
अनुभावः
नाटक में अभिनय करने वाले कलाकार भावों के प्रदर्शित करने के लिए जो आंशिक चेष्टाएं करते हैं उनकों अनुभव करत हैं। उदाहरण के लिए हर्ष का भाव दिखाने के लिए चेहरे पर उल्लास का भाव दिखाकर खिल-खिलाकर हँसना आदि। स्थायी भावों को व्यक्त करने के लिए अपनाई गई उक्तियाँ, चेष्टाएं आदि। ये भाव जाग जाने के बाद आभ्रय में उत्पन्न होती है। इसलिए इन्हें अनुभव-भाव का अनुगामी कहा जाता है। जैसे विरह-व्याकुल नायिका की आह व सिसकिया, आसूँ अनुभव के बारे में चार भेद बताए गए।
आंगिकः शरीर से, अंगो से सम्बन्धित जैसे क्रोध में मुठठी भींचना।
वाचिकः बोलना, वाणी से भावों को व्यक्त करना। जैसे नायिका का विरह कलाप आदि। आरोपित कृत्रिम वंश रचना-बाल बिखेरना, कपड़े फाडकर पहनना।
ये भावों के साथ होने वाले वास्तविक प्राकृतिक लक्षण है। इसमें भ्राभ्रय को कोई कृत्रिम या बाहरी चेष्टा नहीं करनी पड़ती। ये स्वयं होते हैं और इन्हें रोका नहीं जा सकता। सात्विक अनुभावों के आठ भेद हैं-स्तम्भ, कम्य, स्वए-भंग, वैवण्र्य, अभ्रु, खेद, रोमांच, और प्रलय।
भाव और रसः
कलाओं का सम्बन्ध भावों से है। कलाकृतियों में जो भी विषय-वस्तु प्रस्तुत की जाती है। उसका आधार भाव ही होते है। किसी भाव को किस रूप में प्रकट किया जाये जिससे कि वह अधिक से अधिक प्रभावशाली बन सके। यही कलाकार की मुख्य समस्या होती है। श्रोता अथवा दर्शक भी कलाकृति में भावों के प्रस्तुतीकरण की पद्धति से चमत्कृत होता है।
भावों की व्यवस्था को संसार के सभी देशों के कलाकारों ने महत्व दिया है। अन्य देशों में जहाँ इनका विचार सामान्य रूप से हुआ है वहाँ भारत में इनका विचार रस के अन्तर्गत किया गया है। रस का सबसे पहले विचार भरतमुनि के नाटय-शास्त्र में हुआ है। नाटक में काव्य संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला एवं वास्तु आदि सभी कलाओं का प्रयोग होता है।
रस और आनन्दः
रस कलाकृति के प्रभाव से मनुष्य में रसानुभूति प्राप्त होती है और उसी से आनन्द की प्राप्ति होती है। आनन्द मनुष्य की भावनात्मक प्रक्रिया है। कलाकृति को देखकर दर्शक पिपासु भाव आनन्द भाव से भर जाते हैं व जहाँ भाव है वहाँ रस का होना अनिवार्य है। रसास्वादन के पश्चात ही आनन्द की अनुभूति होती है। भारतीय सिद्धान्त की आधुनिक व्याख्याओं से सौन्दर्य को वाह्य रूप की विशेषता मानकर रस से निम्न कोशिका माना गया है। भारतीय दृष्टि सभी कलाओं में वाह्य रूप की विशेषता मानकर रस से निम्न आकर्षण को कम कर दिया है। जबकि रसात्मक पक्ष को ही आत्मा माना है। रमणीयता को महत्व देने वाले पं0 राज जगन्नाथ ने सौन्दर्य की रस से कुछ ऊपर रखा है। सौन्दर्य कला का प्रतीक है।
रसनिष्पत्तिः
भरत ने रसो का स्थायी भावों से सम्बन्ध बताते हुए यह भी कहा है कि स्थायी भाव ही रस नहीं है। जब स्थायी भाव का विभाव अनुभाव तथा संचारी भाव से सहयोग होता है। तभी इनका समग्र अनुभव रस के रूप में होता है। यह रस दार्शनिकों का ब्रह्मानन्द्र (रसो वै स) नहीं है। बल्कि समस्त मानसिक दशाओं, क्रिया, व्यापारों तथा उपायों के विधान द्वारा दर्शक को अनुभूत होता है। दर्शक इसका अनुकरण नहीं करता। क्योंकि रस केवल अनुभव की वस्तु है। अनुकरण की नहीं अभिनेता को इसकी प्रतीति नहीं होती; अतः भरतमुनि के अनुसार रस का अस्तित्व केवल दर्शक के लिए ही होता है।
रसनिस्पत्ति का प्रक्रियाः
भरत ने स्वयं इसकी बहुत स्पष्ट नहीं किया है कि यह समस्त प्रक्रिया किस प्रकार होती है। उनके बाद के रस सिद्धान्त के अनु यायियों ने इनके इस सूत्र को स्वीकार किया और अपने-अपने विचारनुसार व्याख्याएँ की। इसमें तीन बातों पर अधिक बल दिया गया। 1. संयोग का अर्थ क्या है। 2. निष्पत्ति से क्या तात्र्पय है। 3. रसानुभव का स्वरूप क्या है। 
भरतमुनि का रस सूत्र और उसकी व्याख्याः
भरतमुनि ने अपने प्रसिद्ध ‘‘नाटयशास्त्र‘‘ मंे रस की स्पष्ट पूर्ण साग-उपांग व्याख्या दी है। एक प्रकार से भारतीय सौन्द्रर्य-शास्त्र में मनोवैज्ञानिक की व्याख्या लाने वाले वे प्रथम थे। नाट्य ही क्यांे समस्त कलाओं मंे उन्होंने नाट्य ही क्यों चुना। इसका कारण दिया है। नाट्य दृश्य व श्रव्य, चित्र और वाणी, दोनों को समाहति करता है। नाट्य में काव्य संगीत, नृत्य, अभिनय का समावेश होता है। उसमें रसाभि व्यक्ति की पूरी गुंजाइश रहती है। यह कला का पूर्ण रूप है। और वह केन्द्र है। जिसकें चारों और अन्य कलाएँ घुमती है। मंच (मंडप) के निर्माण मंे वास्तुकला और मूर्ति कला भी आ जाती है। भरतमुनि ने स्वयं मंच निर्माण के मापों सहित विस्तृत निर्देश दिए। नाट्य में एक लघु संसार ही रचा जाता है। जिसमंें मनुष्य के सभी प्रमुख भावों के प्रर्दशन का अवसर मिलता है। यह जीवन की पुर्नरचना है। भावों का उद्धेलन है। नाट्य का उद्देश्य केवल कला नहीं सौन्र्दय रचना नहीं, समाज मंे उपयोग भी है। वे यर्थातवाद- समाज जैसा है। वैसा दिखाने के पक्षधर थे। 
सौन्दर्य शास्त्र को भरतमुनि का सबसे बड़ा योगदान उनका रस सिद्धान्त है। ‘रस‘ कलात्मक अनुभव है जिसके मून में मानव की मौलिक वृत्ति भाव है।
अपने ‘रस सूत्र‘ में भरतमुनि ने रस की निस्पत्ति की व्याख्या की। यह पहले ही दिया जा चुका है कि कैसे भाव, विभाव और अनुभावों के साथ मिलकर स्थायी भाव जागृत करते हैं। जिससे ‘रस‘ की सृष्टि होती है। इस श्रोता दृष्टा या पाठक अनुभव करते हैं। रस एक अनुभव, एक कलात्मक आनन्द है। आनन्दमयी चेतना की अनुभूति ही रस है।
भारतभूमि ने नाटयशास्त्र की तिथि के विषय में मतभेद है। कोई इसे तीसरी और अन्य चैथी शताब्दी ई0पू0 का मानते हैं। नाट्यशास्त्र में 37 परिच्छेद हैं। जो विषय वस्तु के आधार पर बंटे हुए हैं। 
नाट्यशास्त्र में चार पक्षों का विवेचन है अभिनय नृत्य, संगीत और रस, प्रथम तीन साधनों के आधार पर चैथे रस पर पहुुँचा जाता है। इसे रसानुभूति कहते हैं। नाटक का अन्तिम लक्ष्य और नाटक का अन्तिम लक्ष्य और चरमोत्कर्ष ‘रस‘ की निष्पत्ति और सहृदय द्वारा उसका आस्वादन है। रस सिद्धान्त की स्थापना का श्रेय भरतमुनि को दिया जाता है। उनका दिया रस-सिद्धान्त संक्षेप में रस एक भाव मूलक कलात्मक अनुभूति है। भरत मुनि के सम्पूर्ण रस-सिद्धान्त के मूल विषय दो हैं। 
नाटक में रस की निष्पत्तिः
नाटक में रस का समाज (दर्शकों) द्वारा अस्वादन
भरतमुनि के रस-सिद्धान्त की विशेषताऐंः
रस अनुभूति नहीं, अनुभूति का विषय आस्वाघ है। रस नाटक का अनिवार्य और सार तत्व है।
नाटय रस भोज्य रस के समान ही भौतिक है। जैसे अन्न आदि विभिन्न प्रकार की सामग्री, मसाले आदि में मिलकर विभिन्न स्वाद देते हैं उसी प्रकार स्थायी भाव विभिन्न नाटय सामग्री से मिलकर विभिन्न रस उत्पन्न करते हैं।
स्थायीभाव स्वयं रस नहीं है वे रस का आधार है-उसी प्रकार जैसे अन्न स्वाद का आधार है। उदाहरण के लिए रति (प्रेम) एक स्थायी भाव है। नाटक (या काव्य) में नायक-नायिका, संयोग-वियोग, हर्ष आदि से मिलाकर श्रृंगार रस का रूप धारण कर लेता है। 
रस स्वयं कलात्मक स्थिति है-जो अस्वाद का विषय है।
रस का आस्वाद एक प्रेक्षक दर्शन है। इस प्रेक्षक की मनोमय प्रक्रिया है। 
इस प्रकार भरतमुनि का मत रस को मन की उपज मानता है। उनका मत निष्पत्तिवाद कहा जाता है। उनके सूत्र में दो ही शब्द हैं-निष्पत्ति और संयोग।
निष्पत्तिः-
इसका अर्थ है बनना या होना कोई स्थिति प्राप्त होना।
संयोगः-
मिलना-योग, संगम
भरतमुनि की व्याख्या है ‘‘जिस प्रकार नाना व्यंजनों, औषधियों, द्रव्यों के संयोग से भोज्य रस की निष्पत्ति होती है। जिस प्रकार गुड़, आदि द्रव्यों, व्यंजनांे एवं औषधियों संषाडवादि रस बनत हैं। उसी प्रकार विविध भावों से संयुक्त होकर स्थायी भाव भी नाट्य रस को प्राप्त होते हैं। रस नूतन सृष्टि नहीं है। भावों उपकरणों की सहायता से नया रूप धारण कर लेता है। 
छात्रा-शबनम 
निर्देशक - डॉ.लाल रत्नाकर 
----------------------------------------

सौन्दर्य कला और दर्शन
सौन्दर्यः- 
सौन्दर्य एक भावना है। संसार में अनेेक वस्तुँए देखते है। इन वस्तु के हमारे मन पर जो प्रभाव पडते है उनमें से एक सुन्दरता का प्रभाव भी है। इस दृष्टि से हम वस्तुओं में निहित एक सामान्य सौन्दर्य गुण की कल्पना करते है। यह सौन्दर्य गुण रूप में कहीं भी उपलब्ध नही है। इसका कुछ अंश ही उपलब्ध होता है। अतः सौन्दर्य एक काल्पनिक प्रत्यय मात्र है जो वस्तुओं की सुन्दरता के आधार पर विकसित हुआ है।
सौन्दर्य के विषय में दो मत है। एक मत है कि सौन्दर्य वस्तु में निहित होता है। इसे भौतिक सौन्दर्य कहा जा सकता है। दूसरा अभौतिक अथवा मानसिक सौन्दर्य है। इन दोनो भेदो को क्रमशः वस्तुपात ¼objective½ तथा आत्मगत (Subjective) सौन्दर्य भी कहता है। 
वस्तुगत सौन्दर्य
सौन्दर्य एक अत्यन्त व्यापक धारणा है। इसकी परिमिति में प्रकृति से लेकर मानव निमिति पदार्थ तक सभी आते है। अतः इसके दो भेद किए गए है। 1. प्राकृतिक तथा, 2. मानव-निर्मित अथवा कृत्रिम।
कृत्रिम सौन्दर्य
प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रेरणा लेकर मानव निर्मित सौन्दर्य का विकास होता है। प्राकृति की विभिन्न सामग्तियों के जो गुण हैं, उन्ही के अनुसार सामग्री का प्रयोग करते हुए मनुष्य अनेक प्रकार की सुन्दर वस्तुओं की रचना करता है। अतः कृत्रिम सौन्दर्य में भी सामग्री प्रकृति से ही ली जाती है। उस सामग्री प्रकृति से ही ली जाती है। उस सामग्री के गुण के अनुसार केवल उसे इस प्रकार प्रस्तुत करते है कि वह गुण एकदम स्पष्ट हो जाता है, कृत्रिम सौन्दर्य से युक्त हम अनेक प्रकार की सामग्री केवल हमारी इन्द्रियों को कुछ समय के लिय सुख देती है, ऐसी वस्तुओं को शिल्पा की श्रेणी में रखा जाता है। दुसरी ओर सामग्री का श्रेष्ठ संयोजन ऐसे रूपो में किया जाता है जो कलात्मक दृष्टि से अभिव्यंजनीय होते है। 
कृत्रिम सौन्दर्य एक आरम्भ प्रकृति के रूपों के पीछे नियमों की समझ से होता हैं। इसका सबसे समूल उदाहरण है, प्राकृतिक रूपों की नकल बनाना या भ्रम उत्पन्न करना, जब हम प्राकृतिक रूपों के वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार विकास का अवयव प्रधान (आर्गेनिक) कहे जाते है।
साहचर्यगत सौन्दर्य
सौन्दर्य की वस्तुगत एक विरोध करने वालो का मत है कि सौन्दर्य वस्तु में न होकर दृष्टा के मन में होता है क्योंकि कोई वस्तु सभी को एक समान सुन्दर नहीं लगती जो वस्तु एक व्यक्ति को अच्छी लगती वह किसी दूसरे व्यक्ति को बिल्कुल भी आकर्षित नहीं करती। अतः सौन्दर्य भावना हमारे मन की प्राप्ति है जिसका आरोप हम बाहरी वस्तुओं पर करते हैैं। यह कथन वास्तव में तथ्यात्मक नहीं है। इसके विरूद्ध पहली बात तो यह है कि संसार में कुछ वस्तुएँ ऐसी है जिनकी सुन्दरता अथवा चाँदनी रात्रि। दूसरी बात है कि हमारी सौन्दर्य-भावना का यह पक्ष सामाजिक विकास की प्रक्रिया का ही एक अंग है। वस्तुओं तथा रूपों के प्रति हमारी प्रक्रियाएँ शारीरिक आवयकताओं तथा इन्द्रिय-बोध के साथ-साथ सामाजिक प्रभावों से ही निश्चित आकार ग्रहण करती है। बचपन से ही हम जिस प्रकार के वातावरण में रहते हैं उसी प्रकार सौन्दर्य-भावना का निर्माण करते है।
नैतिक सौन्दर्य
ऐसी अनेक वस्तुएँ है जो देखने में बाहर से सुन्दर लगती है जैसे मकडी के जाले कुकुमुत्ता में समूह अथवा हथियारो के अलंकरण आदि पर इनके सौन्दर्य के साथ-साथ हानि काकर यहाँ तक कि प्राण-घातक पक्ष भी जुडे हुए है। अतः इनमें से किसी में भी आन्तरिक सौन्दर्य नहीं होता है। इनके विपरीत कुछ वस्तुएँ ऐसी है जो बाहर से सुन्दर नही होती पर उनमें आन्तरिक सौन्दर्य होता है। इनके विपरीत कुछ वस्तुएँ ऐसी है जो बाहर से सुन्दर नही पर उनमें आन्तरिक सौन्दर्य होता है। जैसे एक शव कुरूप होता पर दूसरों के लिए त्याग और बलिदान करने वाले व्यक्ति के शव में एक आन्तरिक सौन्दर्य का अनुभव होने लगता है। क्योकि उसका कार्य सुन्दर होता है। यह मूल्यवान है। इन्द्रियबोध नही इस प्रकार सौन्दर्य की ओर बढ जाते है जो कार्य अथवा वस्तुएँ हमें सामाजि कल्याण अथवा परमार्थ की ओर ले जाते है वे सभी नैतिक दृष्टि से सुन्दर दिखाई देने लगते है। इस प्रकार नैतिक आन्तरिक सौन्दर्य का प्रथम रूप है।
सौन्दर्य की व्याख्या करने वाली नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टियाँ विशुद्ध सौन्दर्यात्मक मूल्य की दृष्टियाँ नही है, यह ठीक है कि कला को सामाजिक उत्तरादियत्व का भी निर्वाह करना चाहिए, किन्तु कला का सवोच्च लक्ष्य किस सीमा तक इससे नियन्त्रित हो इस विषय में पर्याप्त मतभेद है।
कलात्मक सौन्दर्य
प्राकृतिक सौन्दर्य से कला का सौन्दर्य भिन्न होता है। प्रकृति का सौन्दर्य जीव विज्ञान और भौतिक विज्ञान के नियमों का व्यवहार मात्र है। किन्तु कला का सौन्दर्य प्राकृतिक सौन्दर्य के मानसिक प्रभावों तथा कलात्मक सामग्री पर निमन प्रकार निर्भर हैः-
(क) अनुकृति सौन्दर्य
प्राकृतिक के जो रूप तथा क्रियाच्या पर कलाकार आकर्षित प्रभावित करते हैं कलाकार उन्ही को विषय-वस्तु के रूप प्रस्तुत करता है, इसका प्रथम चरण अनुकृति-मूलक है, इसमें प्रथम चरण अनुकृति-मूलक है, इसमें प्रकुति के तथ्य की केवल स्वभावगत का आधार लिया जाता है। किन्तु कभी-कभी प्रकृति के तथ्य के एक-एक सूक्ष्म विवरण को ज्यों की त्यों लेने का प्रयत्न किया जाता है। अनुकृति का सौन्दर्य वास्तविक सौन्दर्य नही माना जा सकता। वह प्रकृति की अपूर्ण अनुकृति होता है तथा उसमें अनेक त्रुटियाँ रहती है। अनुकृति करके कलाकार प्राकृतिक पुष्प से सुन्दर और सजीव पुष्प की सृष्टि नही कर सकता।   
(ख) आदर्श आकृति मूलक सौन्दर्य
कलाकार प्राकृतिक तथ्यों को अनुकूल मात्र न करके संयोजन प्रभाव-वधेन भाव-प्रदर्शन आदि के विचार से रूपान्रित करता है जिसमें कोई आदर्श भाव आदर्श क्रिया-कलाप तथा आदर्श रूप प्रस्तुत क्रिया-कलाप तथा आदर्श रूप प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे रूपों की व्याख्या चित्रकला की उन आकृतियों से की जा सकती है जो स्थाई गुणों तथा प्रतीकात्मकता से युक्त होती है। सृष्टि के पीछे दिए नियमों का गम्भीर अध्ययन करने के उपरान्त ही कलाकार इनकी रचना में सफल होते है। 
(ग) मानवीय सौन्दर्य
कुछ विचारको के अनुसार कला का सौन्दर्य है। उसमें कलाकार खरी मानरव के हृदय की उदारता विशलता, उन्माद तथा उत्पीडन और मधुरतम अनुभूति मानकर उसका आस्वादन करता है कला- सौन्दर्य की मानवता ही कला को महत्व प्रदान करती है। सही इसका प्राकृतिक सौन्दर्य से अन्तर और अतिशय है और इस प्रकार मानवता ही कला को महत्व प्रदान करती है। यही इसका प्राकृतिक सौन्दर्य से अन्तर और अतिशय है और इस प्रकार मानवता ही कला- सौन्दर्य के परीक्षण के लिए उसकी अचूक कसौटी है।
कला सौन्दर्य की अपेक्षा अधिक मार्मिक होता है। मानवता के विकास और अपने के साथ कला भी विकास और विस्तार होता है।  प्रत्येक युग की कला अपने युग की मानवता की प्रतीत होती है। कलाकार अपने व्यक्तित्व में अपने युग की समष्टि का अनुभव करता है। उसके व्यक्तित्व में मानवता उसके आदर्श, आहलाह और अवसाद, गान कन्दन, आशा और अभिलाष, सभी स्पष्ट हो उठते है।
(ग) कम-मूलक सौन्दर्य 
फ्रायड तथा झु्रग आदि मनोवैज्ञानिको के अनुसार कला अथवा जीवन-शक्ति को मूर्त करने का प्रयत्न करती है। हमारी कल्पना भोजन-पान, मैथुन, स्पर्श आदि प्रकार से तृप्ति के लिए विकल रहती है। यही कामना वस्तुओं को सौन्दर्य या आकर्षण प्रदान करना है। कला भी इसी की तृप्ति के अनेक साधनो में से एक है। जब यह काम तत्व सरस होकर तृप्ति और आसकित उत्पन्न करता है हम कला को ही सुन्दर कहते है। 
कला
कला का कार्य रूपो की सृष्टि करना है। संसार में देख-सुने विम्बों को कल्पनाके सहयोग से कलाकार अनेक वास्तविक काल्पनिक यथार्थ रूपों में कल्पित करता रहता है। मानव-सभ्यता के आदि युग से लेकर वर्तमान युग पर्यन्त मनुष्य की यह प्रवृत्ति क्रियाशील रही है। भविष्य में भी इसी प्रकार रहेगी। मानव जब जंगो में रहता है जब अन्ध-विश्वास और जादुई भावना से उसने कला रूपों की जो प्रेरण ली थी वह विकसिकत सभ्यताओं में घन के रूप में प्रसिद्ध हुई। सामाजिक संगठन के विरोध रूपों ने जिन व्यवहारों का विधान किया उन्हे आचार-शास्त्र कहा गया। उनके अनुकलू कार्य नैतिक तथा प्रतिकूल कार्य अनैकित माना गया है। धर्म तथा समाजिक व्यवहार के विभिन्न पक्षों का अंकन अन्तर्वस्तु के रूप में कलाओं में व्यापक रूप से हुआ कलाओं में व्यापक रूप से हुआ। कलाओं पर एकाधिकार जताने की नीयत से धर्म और सामाजिक संस्थओं में उन सभी कलाकृतियों को निन्दनीय माना जिसमें उनके अनुशासन का पालन न हुआ हो।
किसी भी कलाकुति के निर्माण के समय क्रिया होती है उसका सम्बन्ध कलाकार के मन से कलाकार की चेतना से है। तब फिर कला तथा कलाकार का समाज से क्या सम्बन्ध है।
यद्यपि कलाओं की दृष्टि काल्पनिक होती है तथापित इस मिथ्या सृष्टि के सहारे ही कलाकार समाज के अन्य सदस्यों के मन में छिपे भावों को अनिश्चित व्यक्ति प्रदान कर उनका संस्कार करता है।
दर्शन
जीवन तथा दृष्टि के प्रति सारभूत चिन्तन को ही दर्शन कहा जाता है। जो इससे सम्बन्धित मूल प्रश्नों तथा उत्तर का क्षेत्र है। दर्शनिक तत्व मीमांसा को कला में केवल प्रतीक विधि से ही प्रस्तुत किया जा सकता है। अतः बिना प्रतीकों का अर्थ समझे इस प्रकार की प्रतीकता कलाकृति का आन्तरिक गुण न होकर उस पर बाहर से अभिव्यंजना की पूर्णता और सच्चाई ही कला का सबसे बडा सत्य है फिर चाहे यह अभिव्यंजना किसी भी प्रकार की क्यों न हो दर्शन के विषय में क्रोचे का विचार है कि वह प्राकृतिक विज्ञान को परिमाण का क्षेत्र प्रदान कर देता है। इतिहास को काल-क्रमानुसार व्यक्तिगत घटनाओं का और कला को विशिष्ट सम्भावनाओं का कभी-कभी ऐसा लगता है कि दर्शनिक विचार को प्रतीक द्वारा कला कृति के माध्यम से व्यकत किया जा सकता है। सारे संसार में दर्शनिक तत्वों के अनेक प्रतीकों द्वारा सदैव प्रस्तुत किया रहा है। शिव ताण्डव का प्रतीक तो सृष्टि-सम्बन्धी दर्शन का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। यह सृष्टि के संहार का तो प्रतीक है कि संसार के पश्चात् सृष्टि का भी प्रतीक है। 

छात्रा - सुषमा
जी0190019
एम.ए. प्रथम सेमेस्टर
2013
चित्रकला विभाग 
निर्देशक -
डॉ.लाल रत्नाकर 


  .............................

पाश्चात्य कला दर्शन के चितंक लेसिग और काण्ट


विकास कुमार सिंह 
कला दर्शन व उनके चितंक  
भूमिका:- 
आधुनिक कला से हमारा तात्पर्य होता है , सामान्यतः योरोपीय कला से वास्तव में इतिहास की दृष्टि से , पश्चिम में अनेक संस्कृतियाॅं , जातियाॅं, और उपजातियाॅं, धर्म और जीवन की व्यवस्थाऐं , घूल मिल गयी है। काली निग्रहों जातियों से लेकर मिश्र, यूनानी , रोमन, अरबी - सामी - हामी सभ्यताएॅं की पश्चिम से टकराई है। इन सभी के अपने अपने जीवन और अपनी अपनी कलात्मक अभिव्यक्तियाॅं थी, जिनका विश्लेषण कठिन है, सौभाग्य से, ऐसा विश्लेषण कला के दर्शन को समझने के लिए अनिवार्य भी नहीं, क्योंकि कला मन की एक मौलिक सहजात वृति है किन्तु लैसिंग और काण्ट ने इसे एक अलग नजरिये से अपने विचारो को प्रस्तुत किया है। 


अपने विचारो को प्रस्तुत किया है। 
लैसिंग के अनुसार कला क्या है 
लैसिंग-1729-1781ई0 
लैसिंगः- मनुष्य के शरीर संस्थान के सौन्दर्य को प्रधान माना विकंलमैन के साथ मनुष्य द्वारा किये गये प्रकृति के अनुकरण को भी सौन्दर्य के क्षेत्र मे स्वीकार किया है। किन्तु लैसिंग ने सौन्दर्य के मूल प्रश्नो पर विचार नहीं किया है। वे हमेशा नाट्य शास्त्र पर ही सैद्धान्ति पक्ष पर विचार और मन्थन किया उन्होने, त्रास्दी , संकलन त्रयी, विरेचन के सिद्धान्त तथा करुणा एवं भय के ाावी आदि का ही विशेष विवेचन किया है। लाकून की प्रतिमा ने लैसिंग को काव्य तथा चित्रकला के प्रति जागरुक किया । किन्तु इनके और विकंलमैन के बीच मतभेद बनते रहे । लेकिन लैसिंग लाकून कि प्रतिमा से इतने प्रभावित हुए की प्रतिमा के आधार पर लैसिंग ने अपने ग्रंथ का नाम भी ‘लाकून’ रख दिया । 
‘लाकून’’ नामक गं्रथ लिखकर लैसिंग को विकलमैन में मतभेदो की कटाक्ष करने का अवसर मिल गया और कटाक्ष करते हुए लैसिंग कहते है कि सशक्त संवेगो की अभिव्यक्ति से सौन्दर्य की हानि होती है। उदाहरण के रुप में होमर के काव्य में मार्स जब चीखता है तो उसकी कण्ठ स्वर अर्थात आवाज दस हजार व्यक्तियो के कण्ठ के समान गूजता है। वही कोमलांगी तथा सौन्दर्य की आदर्श वीनस श्री तनिक सी खरोंच से चीखकर अपनी पीडा व्यक्त करती है। चीखने से आकृति में विकृती आती है।
लाकून कि प्रतिमा को शिल्पकार ने उतना ही खुला दिखाया गया है, जितना आह लेते हुए था कराहते हुए व्यक्ति खुलता हो । लैसिंग का काव्य और चित्रकला में विवेचन - 
काव्य तथा चित्रकला के सम्बन्ध तथा दोनो की अलग अलग विशेषताओं के विवेचन निहित है। तुलनात्मक सौन्दर्य शास्त्र का वासतविक आरम्भ यही से होता है। लैसिंग के अनुसार कलाओ का सर्वोच्च लक्ष्य मन की जागृत हुई इच्छा को चर्म सीमा तक पहुचाना है आनन्द प्रापत करना है, और दृश्य कलाओ का सर्वप्रधान लक्ष्य सौन्दर्य प्रदान करता है। सौन्दर्य का परम आदर्श मानवाकृति में निहित है । प्रकृति से सौन्दर्य पे्ररणा लेता है। जो सदा निरनतर परिवर्तनशील है, एक यूनानी कहावत के अनुसार ‘‘चित्र और कपिल एक समान है ध्यान देने योग्य है । 
लैगिग के विचार:- कोई भी कला कभी स्थिर नहीं होती, किन्तु मूर्तिका, चित्रकला क्रियाशील रुप के किसी एक क्षण को ही प्रस्तुत कर सकता है, क्योकि इन कलाओ का सम्बन्ध दृष्टि से है । 
मूर्ति में वस्तु के एक प्रभावशाली क्षण का अंकन ही पर्याप्त होता है। उदाहरणार्थ लाकून की प्रतिमा में सर्व की दुहरी कुण्डली से शरीर को न ढक कर इस तरह लपेटा गया है कि उदर का पीडा युक्त खिंचाव स्पष्ट दिखाई देता है । इसमे कार्य की कुण्डलियाॅ शरीर पर न दिखाकर केवल जंघाओ और पैरो पर ही दिखायी गयी है। और कवि अपनी कविता में जसिका के सुन्दरता के सब भेद खोल देता है। सारांश यह निकलता है कि किसी मूर्ति व चित्र के आधार पर सुन्दर कविता की रचना की जा सकती है और कवि को अपने शब्दो में हेर फेर करने कि आवश्यकता नहीं है, किन्तु कविता के शब्दो के आधार पर मूर्तिया चित्र बनना अति कठिन कार्य है।
कला में अभिव्यक्ति के हेतु प्रतीको की आवश्यकता होती है पर कवि को इनकी सर्वत्र आवश्यकता नहीं है वह केवल शब्द से ही देवता का बांध करा सकता है। किसी प्रतीक का चित्रकार के लिए आविष्कार सरल है किन्तु अंकन कठिन इसके विपरीत कवि के लिए आविष्कार कठिन है जबकि वर्णनो से खेलना सरल है । 
नीति परक अर्थ:- कविता में भी आकृतियो का प्रयोग होता है पर क्रियाओं के द्वारा संकेत से । चित्र में एक ही क्षण का अंकन होता है अतः यह क्षण बहुत ही सोच विचार कर रखना चाहिये , लैसिंग जी का कहना था, कार्य की पूर्वापर अवस्थाओं का सम्यक निरुपता होता है कविता में किसी घटना का क्रमश उदय देखा जा सकता है पर चित्र में उसकी उदय के उपरान्त की ही स्थिति अंकित की जा सकती है । 
कला परख अर्थ:- जब कवि अपनी बात को सुन्दर वर्णो में लाने में असमर्थ होता है तो वह व्यंजा का सहारा लेता है। इसी व्यंजना के कारण उसकी कृति कलाकृति बनती है। और कवि उस स्थिति में चित्रकार से आगे बढ जाता है। जब गतिशील सौन्र्य का वर्णन करता है। चित्रकार अपनी कृति से गति का किंचित देने का संकेत करता है, पर वास्तव में उसकी आकृतियां गति - विहीन रहती है। 
लैसिंग से यूनानी कला को आधार मानकर ही सौन्दर्य सिद्धान्तो की स्थापना का प्रयत्न किया, लेकिन एक नया आन्दोलन मौलिकता, स्वच्छन्दता, सहज संवेग तथा अनुभूति की गहराई आदि के आधारों को लेकर शुरु हुआ जो स्वच्छन्दतावाद के नाम से विख्यात हुआ और समस्त यूरोप में फैल गया है।  
दार्शनिक सौन्दर्य के नीव रखने वाले प्रथम कलाचितंक काण्ट
काण्ट के अनुसार दर्शन सौन्दर्य क्या है :- इम्यूनल काण्ट का महत्व उनके मौलिक विचारो के कारण सौन्दर्य शास्त्र के सृष्ट कलाकार तथा उसके दर्शक सहृदय के अनुभव एक समान होता रहा है कृति की रचना के नियमो का ज्ञान की परमावश्यक है कलाकार की प्रतिभा शक्ति जिन कात्मक प्रत्ययो को प्रस्तुत करती है वे कल्पना के ही प्रतिरुप है और कला की आनना है। 
हम अगर देखे तो काण्ट के दैत सिद्धान्त का सीधा प्रभाव का पर पडा हो या न पडा हो परन्तु उसके अप्रतिहत तर्क, आत्म विश्वास और मानव भावनाओ का विचार यूरोप के घबराये हुए लाक मानस को छू गया । जो मूल्य महत्व रखता है, हर व्यक्ति के जीवन के लिए: इस तर्क ने भावना फिलिग्स , इमोशन की मान्यता के लिए रास्ता खोल दिया। काण्ट से पहले भावना को मन मात्र इंझा, विकार, क्षणिक घटना समझा जाता था । काण्ट ने सबसे पहले मन की त्रिधारा बवहदपजपवद त्र बोध, ंििमबजपवद त्र भावना, और बवदंजपवद त्र सकंल्प को मान्यता दी । बुद्धि के द्वारा हम चित्र-तुरगं की वास्तविक और सच्चाई सिद्ध नहीं कर सकते, परन्तु इसके द्वारा तो हम अपनी आत्मा, ईश्वर, विश्वास, यहाॅं तक कि जीवन के महा मूल्यों -नैतिकता, स्नेह, सौन्दर्य, पुण्य, पवित्रता, आदि की तार्किक स्थापना भी नहीं कर सकते । इसी पर आधारित बाउमगार्टन ने ।मेजीमजपबे सौन्दर्य शास्त्र नाम हमें दिया परन्तु कला के लिए दार्शनिक आधार काण्ट ने ही स्थिर किया। 
काण्ट के संकलपित भावना व बोध- संकल्प और भावना- ये एक ही मन के तीन पक्ष है जो बोधात्मक , संकल्पनात्मक और भावनात्मक क्रियाओं में प्रकट होते है, कला मंे सृजन  कलाकार के संकल्प से सिद्ध होते है सृजन से भावना का संस्कार और तृप्ति होती है, और बोधात्मक क्रिया साधक होती है, कर्तव्य का संकल्प और ज्ञान का विश्लेषण विवेचना स्थपित होने से सौन्दर्य - भावना की पुष्टि होती है। यही सौन्दर्य का कलात्मक अनुभव है, काण्ट के ही सौन्दर्य की दार्शनिक नीव डाली । 
काण्ट का विरेचन सिद्धान्त-   
काण्ट ने, सचमुच, मन और मनुष्य की नूतन परिभाषा प्रस्तुत की जिस समय (पश्चिम) चैंक पडा।  
काण्ट का कहना था - मन रचना कर सकता है, करता है, सत्य विचार से सृजन को बल मिलता है। 
‘अनुकरण’ को केमरे के लिए छोडकर जब कला आगे बढती है तो राह मे ‘सृजन’ के अनेकानेक रुप सामने आये, अनेक नये कला तत्व भी निखरते है सृजन क्या है? क्यों है? कैसे है? इत्यादि प्रश्न पूछे जाते है यह इतिहास हमारे लिये रोचक हो सकती है। 

काण्ट के निम्न उदाहरण - 
क- हम अनुकरण की सीमाओ पर विचार कर चुके है, सादृश्य पूरी तरह सम्भव नहीं है। ‘पूर्वविचार’ की कला कुछ दूर तक ही जा सकती है, यह हमारे प्रस्थान की पहली मंजिल है। 
ख- केमरे की कला में भी कलाकार का प्रयोजन और दृष्टिकोण स्पष्ट देखा जा सकता है। सुन्दरी के चित्र के चित्र में अनेक सौन्दर्य को उभारने, अंग-विशेष की सुषमा, चारुता, सन्तुलन को प्रसतुत करने, का उद्देश्य होता है तो केमरा मैन किसी मुद्रा - भंगिमा अथवा कोण क्षण आदि का ध्यान रखता है, यह एक प्रकार का ।इेजतंबजपवद पृथक्किरण है, अर्थात सृजन का दूसरा सोपान है। 
ग- कल्पना के बल से कलाकार वस्तु के रुप में बदलाव भी ला सकता है। यह ज्तंदेवितउंजपवद है। कलाकार का हाथी अथवा घोडा प्रतिकृति न होकर भी, अथवा प्रतिकृति न ही कलात्मक होता है। प्रकृति का रुपान्तरण Transformtion of Nature
घ- रुपान्तरण करने में कलाकार अपनी कृति को आदर्श बना सकता है, अर्थात उसमें ऐसे तत्व भर सकता है जो पकमंस हो अर्थात जिनका अस्तित्व मानसिक हो, वास्तविक नहीं, वह ‘सुन्दर’ को सुन्दरतम् बना सकता है। हम इसे आदर्शीकरण प्कमंसपेंजपवद कहते है।
ड- वह अपनी कृति को आश्चर्यजनक, अलौकिक उद्भुत अर्थो से जगमग कर सकता है, जैसे फ्रंास के साथ ईसा की मूर्ति को बनाकर । ये अर्थ प्रतिकात्मक ेलउइवसपब होते है। यह प्रतीकीकरण ेलउइवसपेंजपवद की क्रिया है। हमारा सहस विश्वास और आस्था इस क्रिया का सम्बन्ध करते है। 
अपनी बात को सिद्ध करने के लिए काण्ट ने कई ग्रंथ लिखे - 
1- क्रिटिक आॅफ प्योर रीजन 
जिसमें अनुभव का सैद्धान्तिक विवेचन है। 
2- क्रिटिक आॅफ द पावर आॅफ जसमेण्ट
जिसमें सौन्दर्य अथवा कला सम्बन्धी अनुभव की व्याख्या है। 
3- क्रिटिक आफ द पे्रक्टिकल रीजन
जिसमें व्यावाहारिक अनुभव का विश्लेषण है। 
इनके प्रथम गं्रथ में कहा गया है कि हमारे सभी विचारो के कुछ निर्दिष्ट प्रकार है तथा प्रत्येक भाव का किसी अन्य भाव से कारण वश सम्बन्ध होता है। काण्ट का यह मानना था कि समयता केवल हमारे अन्र्तलोक में है। हमसे एक ऐसी वृत्ति है जिससे हम आत्मा की निरपेक्ष एक स्वतंत्र समता मानने को तैयार होते है, काण्ट से इसी को रीजन कहा है। 
सृजन के मूल तत्व काण्ट के अनुसार:-
सृजन के ये विविध सोपान मंजिले, विधाएं अथवा भंगिमाएॅं मानी जा सकती है । संसार की अनेक कला शैलियाॅं मात्र ंइेजतंबजपवद पृथक्करण पर आघृत है जिनमें कलाकार सम्पूर्ण मे से किसी एक विशिष्ट को, किसी प्रयोजन, अथवा दृष्टिकोण को लेकर, स्थापित करता है। पिकासो का प्रसिद्ध चित्र गुरुर्निका द्वितीय विश्व युद्ध में मानवता के अ-मानव, घृणित , विखंडित, टूटे-बिखरे व्यक्तित्व का चित्रण है। यहाॅं सादृश्य , व्यर्थ होता है। प्रयोजन की सिद्धि के लिये कृतिकार सादृश्य की आवश्यकता से अपने को छुडाकर ही चित्र अथवा मूर्ति का सृजन करता है। मामूली पे्रक्षक इसे देखकर घबरा उठता है। इस शैली का कोई अन्त नहीं । 
इसी प्रकार जतंदेवितउंजपवदए प्कंसप्रंजपवदए अथवा ेलउइवसप्रंजपवद के द्वारा भी कला अनेक रुपो और शैलियो का विकास कर रही है। न्यूयार्क में तलवार को मोडकर हल बजाते हुए मानव की विशालकाय लौह मूर्ति, प्रतीकात्मक भाषा में उसकी युयुसा आक्रामकता युद्ध, प्रियता के उपर जीवन मे निर्माण की विजय है। प्रतिकात्मक कलाओं की कोई भी इदत्ता नहीं हो सकती । इसी कला में रुप का अर्थ रहता है, अथवा अर्थ ही रुपित हो उठता है।
काण्ट के उदाहरण - उदाहरण से पुस्तक का आकार न बढे, इस विचार से पाठक से निवेदन है कि वह अपने कला बोध का सहारा लेकर स्वयं अभ्यास करे और कला की विविध भगिमाओं का अध्ययन करे । अध्ययन से यह भी स्पष्ट समझ मेकं आ जायेगा कि कला किस प्रकार अपने आपको सादृश्य मूलक अनुकरण की अनिवार्यता से मुक्त करके आगे बढी है। और आगे बढी है सृजन की ओर ।  
अनुकरण का सिद्धान्त - अनुकरण की अनिवार्यता और तर्क  की अनिवार्यता इस दोनो अनिवार्यताओं से मुक्त होकर कलाकार का मन सृजन करता है, चाहे वह सृजन भाषित हो, कृति हो, निर्मित हो, अभिव्यक्ति हो, जिसके विषय में आचार्य मम्मट ने कहा था। नियतिकृत नियमारंहिता, और परतंत्रा अनन्य, अर्थात जो नियति , प्रकृति के नियमों से भी उपर हो, और जो मात्र अपने ही विधानों को स्वीकार करें । किसी दूसरे विधानो को नहीं । मन की मुक्ति की चर्चा हम भारतीय विधानों को स्वीकार करे, किसी दूसरे विधानो की नहीं। 
मन की मुक्ति की चर्चा हम भारतीय कला के अध्यात्मक के सन्दर्भ में कर आये है। वास्तव में सृजन का प्रश्न बिना अध्यात्मक के समझा समझाया नहीं जा सकता । मन के मोक्ष मे सुख है।  जिसे कलाकार और रसिक जानते भोगते है। यह सब चर्चा की जा चुकी है। वर्तमान प्रकरण मे हमने देखा है कि काण्ट ने अपने ग्रन्थ ं बतपजपुनम व िचनतम तमंेवद में बुद्धि की प्रक्रिया और सीमाओ को समझाया है, और ज्ञेय -ज्ञात मे करती हुई अनुभव की दुनिया से मन को मुक्त करने के लिये । बतपजपुनम व िरनकहमउमदज की रचना की है। वास्तव में उसने दो विरोधी शक्तियो का प्रतिपादन किया है। एक दमबमेेपजल (अनिवार्यता) और दो तिममकवउ मुक्ति । यदि मन मक्त नहीं है तो वह अपना नैतिक दायित्व - कर्तव्य कैसे निभा सकता है। परंतंत्र के लिये कोई विकल्प नहीं, छाॅट नहीं, तो वह पशु है । जो हो कला में सृजन के स्वरुप को समझने के लिये मुक्त मन की सकलपना अपेखित है जो काण्ट से प्राप्त हुई 
विकास कुमार सिंह 
एम0ए0द्वितीय सेमिस्टर
2012
अनुक्रमांक ळ0192509
चित्रकला विभाग
एम0एम0एच0काॅलिज
गाजियाबाद
निदेशक -
डा. लाल रत्नाकर
अध्यक्ष
चित्रकला विभाग
एम0 एम0 एच0 काॅलिज
गाजियाबाद 



.......................................................

पाश्चात्य कला दर्शन, सौन्दर्य तत्व एवं सिद्धान्त
कु. हिहानी गौतम

कला जन्म तो मानव मात्र के साथ ही हुआ परन्तु कला चिन्तन बाद में आया। प्राचीनकाल में सम्पूर्ण शास्त्र मिलाकर एक बडा दर्शनशास्त्र था और ये सभी इसकी शाखाएॅं थी । सौन्दर्य के विषय में चिन्तन ही दर्शनशास्त्र का अंग था । पाश्चात्य कला का इतिहास उतना ही प्राची है जितना की मानव का इतिहास । इसक प्रमाण प्रस्तर युग के पाए गए मिनिचित्र है। जो मानव की अन्र्तमन की अभिव्यक्ति है।  
पाश्चात्य कला-दर्शन
पाश्चात्य से हमारा मतलब है - पश्चिम से और इतिहास की दृष्टि से पश्चिम में अनेक संस्कृतियाॅं, जातियाॅं व उपजातियाॅं आदि आती है, जिनका निर्माण साहित्य, विज्ञान, कलाओ के वृहद् अध्ययन से हुआ है। इन सभी के अपने अपने जीवन-दर्शन व अपनी अपनी कलात्मक अभिव्यक्तियां थी, जिनका विश्लेषण कठिन है। 
कला मानव मन की अभिव्यक्ति है । कला मन व मानव की मातृभाषा है, जो मौलिक व सर्वभौम है । इन सभी अभिव्यक्तियों में निम्न लक्षण देखे जा सकते है - 
1- उपयोगिता - जो मानव की प्रथम उपलब्धि थी अर्थात् मानव के लिए उपयोगी है। 
2- रमणीयता-अभिव्यक्ति ऐसी हो जो दर्शको का मन मोह ले और वे उसी में रम जाए अर्थात् कलाकार अपने चित्र के माध्यम से जो भी अभिव्यक्त करना चाहता है, वह ऐसा हो कि जो भी उसे देखे तो उस पर मोहित हो जाए अर्थात् उसी में खो जाए ।  
3- आत्मीयता-जो भी कलाकार अभिव्यक्त करना चाहता है वह अन्तर्गत की अभिव्यक्ति हो किसी की अनुकृति नही तभी वह पूर्ण अभिव्यक्ति है अन्यथा अनुकृति/ अगर वह अन्तर्गत की अभिव्यक्ति है तो तभी तो वह प्रेक्षक के मन तक पहुंचेगी और वह उसको समझा सकेगा । 
4- सौन्दयबोध- जो भी कलाकार बना रहा है अर्थात चित्रित कर रहा है। उसमें सौन्दर्य होना आवश्यक है, जो कला का प्रमुख अंग है। जिसके कारण वह सुन्दर व आकर्षक लगती है। और प्रेक्षक भी उसकी ओर आकर्षित होता है। 
कला मानव की सहज अभिव्यक्ति है। जिस प्रकार सरोवर में विभिन्न लहरे उठती है। उसी प्रकार कलाकार के मन में भी विभिन्न लहरे यानि तरंगे उत्पन्न होती है और वह उन तरंगो को तुल्लिका की सहायता से चित्रो के माध्यम अभिव्यक्त कर देता है। और कम से कम रेखाओ में अपने मन की बातों को बहुत ही आसानी से अभिव्यक्त कर देता है। 
यूनान की पाश्चात्य कला - दृष्टि
यूनानी कौन थे? कहाॅं से आए। पता नहीं, परन्तु इतना स्पष्ट होता है कि उनमें अनेक जातियो उपजातियो व आर्यो का मिश्रण था । यूनानी सभ्यता एक कला केन्द्रिय सभ्यता थी । सभ्यता के पूरे पश्चिमी इतिहास में अब तक कोई जाति या राष्ट्र कला के प्रति इण्तने समर्पित या इतने दीवाने नहीं हुए जितने की यूनानी थे । 
यूनानियों के लिए सौन्दर्य यर्थाथ था, तथ्य था कल्पना नहीं , सत्य शिंव सुन्दरम् की अवधारणा पश्चिम में यूनानियों की देन है। यूनानी विचार का मूल मंत्र था कि जो तथ्य है, वह सुन्दर है और जो भी सुन्दर है। वह अवश्य ही शिव या कल्याणकार होगा । यह अवधारण यूनानी विचार की उच्चता व गहनता दोनो प्रकट करती है।  
पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र
पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र का स्वरुप हमे यूरोप मे देखने को मिला । सौन्दर्य का अर्थ होता है - सुन्दर अर्थात जो सुख व आनन्द की अनुभूति कराए इसे यूरोप मे अंगे्रजी में एस्थेटिक्स कहा गया । 
एस्थेटिक्स शब्द यूनानी भाषा के ऐस्थिटिकोरन के आधार पर गढा गया जिसका अर्थ है इन्द्रिय बोध अथवा वस्तु बोध । सामान्य रुप से आज इसका सम्बन्ध उस सौन्दर्य से माना जाता है जो कला अथवा प्रकृति में है। आरम्भ में सौन्दर्यशास्त्र दर्शशास्त्र का ही एक अंग था । 
पाश्चात्य सौन्दय का आधार 
इसे लेकर भी पर्याप्त मतभेद रहा है। कुछ विचारक प्रकृति के अनुभव को ही इसका आधार मानते है। किन्तु कुछ अन्य विचारक इसका आधार आदर्श मानते है। प्रकृति पर आधारित सौन्दर्य के विचार ने ही आगे चलकर सौन्दर्य मनोविज्ञान का विकास किया । कुछ विचारकों ने अनुभूति को प्रधान महत्व दिया और कलाकृति को गौण माना । 
इस प्रकार  सौन्दर्यशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसे केवल दर्शन शास्त्र अथवा मनोविज्ञान की एक शाखा ही नहीं समझा जाना चाहिए । सान्दर्य प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त है और कलाओ में भी सौन्दर्य की ही सृष्टि की जाती है। कहा जाता है कि काव्यशास्त्र तथा सौन्दर्यशास्त्र के अनेक पक्ष मिलते जुलते है परन्तु इनमें मूल अन्तर यह है कि काव्यशास्त्र जहा काव्य की प्रकृति, प्रकार एवं अलंकारो आदि के विवेचन से सम्बन्धित है वहां सौन्दर्यशास्त्र इन्द्रिय बोध और सौन्दर्यनुभूति का विश्लेषण करता है। काव्यशास्त्र जहां केवल काव्य का ही विचार करता है वही सोन्दर्यशास्त्र सभी कलाओ में व्याप्त है।  
यूनानी-रोमन पाश्चात्य सौन्दर्य दर्शन
यूरोप सभ्यता, कला, संस्कृति ज्ञान और विज्ञान की परम्पराएं प्राचीन यूनान से आरम्भ हुई थी । आज भी जब किसी यूरोपीय विचारधारा का इतिहास समझने का प्रयत्न किया जाता है तो उसे प्राचीन यूनान से ही आरम्भ करते है। प्राचीन यूनान में अनेक प्रसिद्ध दर्शनिक , विचारक, कलाकार तथा कवि हो गए है। किन्तु उन सब में प्लेटो तथा अरस्तू के नाम कला तथा सौन्दर्य से सम्बन्धित विचारो की दृष्टि से विशेश महत्वपूर्ण है ।
यूनान में का के सौन्दर्य का विचार सत्य अनुकृति और शुद्धिकरण की दृष्टि से आरम्भ हो चुका था । 
किन्तु दार्शनिक कलाओ को कुछ दूसरी ही दृष्टि से देखते थे । कुछ दार्शनिको ने कलाओ को असत्य से सम्बन्धित माना था । 
प्राचीन यूनान में अनुकृति का सिद्धान्त भी प्रचलित हो चुका था । सकुरात नामक दार्शनिक ने कहा था कि अनुकृति का अर्थ अच्छी बातो की अनुकृति है। सुकरात ने अनुकृति के सिद्धान्त का उल्लेख चित्रकला व मूर्तिकला में किया उनका कहना था कि कलाकार अनेक वस्तुओ के सुन्दर अंशो का चयन करके उनके आधार पर ही किसी सुन्दर कृति की रचना करता है। सुकरात ने सौन्दर्य को कल्याणकारी माना था । 
पाश्चात्य सौन्दर्य के तत्व
सौन्दर्य जीवन को सुन्दर बनाता है। सौन्दर्य हर वस्तुओं में होता है । जो हमें अपनी ओर आकर्षित करती है। सौन्दर्य के तत्व निम्न है, जिन्हे विचारकों ने अपने अपने तरीको से माना है और उन पर अपने विचारो को प्रकट किया है। 
1- प्लेटो के अनुसार - प्लेटो ने सौन्दर्य को सत्य व शिव (कल्याण) से सम्बन्धित बताया है। उनका मानना था कि सौन्दर्य परम है। और जो सत्य है वह सुन्दर है अर्थात् सत्य हमेशा सीमित, अनश्वर व अपरिवर्तनशील होता है व असत्य हमेशा असीमित, नश्वर व परिवर्तनशील होता है । इसलिए उन्होने सत्य को ही सौन्दर्य माना।
2- अरस्तु के अनुसार- अरस्तु ने सौन्दर्य शास्त्र को कोई नई दिशा नहीं दी। वरन् वे उन्होने प्लेटो व सुकरात के विचारों से ही सहमत रहे । उन्होने केवल सौन्दर्य के चार तत्व बताए ।
1- सन्तुलन- कला में परस्पर अंगो में सन्तुलन हो तभी वह सुन्दर लगेगी अन्यथा नहीं इसलिए चीजो में सन्तुलन बहुत आवश्यक है।  
2- निश्चित आयाम- न बहुत बडा न बहुत छोटा दोनो के बीच का माध्यम होना चाहिए । तभी वह सौन्दर्य को उत्पन्न करेगी अर्थात सुन्दर लगेगी।

3- सामंजस्य - किसी भी कलाकृति या वस्तु का निर्माण विभिन्न अंगो से मिलकर होता है और इन अंगो में सही सामंजस्य हो तभी वह सुन्दर लगेगी अन्यथा नहीं ।  
4- सौन्दर्य के अनुभव में लालसा, वासना, उपयोगिता का विचार नहीं होता।
3- सनत आॅग्स्टाईन के अनुसार - आग्स्टाईन ने भी अंगो के सही तालमेल व सामंजस्य को सौन्दर्य के तत्व माना है व इनहोने सत्य को भी इसमें प्राथमिकता दी अर्थात् सत्य को सौन्दय माना । 
4- लैसिंग व बाउमगार्तेन - बाऊमगार्तेन व लैसिंग दोनो प्लेटो के ही अधिक निकट थे इसलिए इनहोने भी सत्य व शिव को सौन्दर्य का तत्व माना परन्तु लैसिंग ने इसमें अपने विचारो को रखते हुए कहा कि सौन्दर्य में वृद्धि के लिए कलाकार को अपनी कला में सही सन्तुलन , सामंजस्य, अनुपात व अलंकारो को प्रयुक्त करना चाहिए अर्थात् इन सभी से ही सौन्दर्य में वृद्धि होती है। 
5- काण्ट के अनुसार - काण्ट ने सौन्दर्य को मन की अनुभूति बताया है उन्होने कहा कि सौन्दर्य वस्तुओं में नहीं वरन् देखने वालो की दृष्टि अर्थात् मन में होता है और वो ही उसे देखकर सौन्दर्य  की अनुभूति करता है। उन्होने बताया कि जिस प्रकार एक व्यक्ति को कोई वस्तु बहुत ही सुन्दर व आकर्षक लगती है और वही वस्तु दूसरो को असुन्दर लगती है इसलिए सौन्दर्य व्यक्ति के मन की अनुभूति है। 
6- हिगेल के अनुसार - हीगेल सत्य , शिंव , सुन्दरम् कि अवधारणा को ही महत्ता देते है, उनका मानना है, कि जो वस्तु सुन्दर है वह सत्य व कल्याणकारी होगी ही । 
पाश्चात्य कला का सिद्धान्त
पाश्चात्य कला के सम्बन्ध में अनेक विचारको ने इस पर अपने विचार प्रकट किए है। 
1- प्लेटो के अनुसार- प्लेटो ने कहा, ‘‘जिसमें निर्माण की प्रकिया हो वही कला है’’ कला केवल आनन्दमयी ही नहीं व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के लिए उपयोगी भी होनी चाहिए। कला में शुभ (शुद्ध) तत्वो का समावेश होना चाहिए । प्लेटो ने कला को अनुकरण मात्र माना, उन्होने इस पर अपना अनुकृति सिद्धान्त प्रस्तुत किया । उनहोने कला को केवल अनुकरण मात्र माना । उन्होने केवल उपयोगी कलाओ को ही महत्ता दी। प्लेटो ने कला को आनन्दायक बताया । 
2- अरस्तु के अनुसार - अरस्तु ने प्लेटो से कुछ अलग बताते हुए कहा ‘‘ कि कला अनुकरण तो है परन्तु उसमें कलाकार के मन की अभिव्यक्ति भी छिपी होती है। उनके अनुसार कलाकार अपने आस पास के वातावरण व प्रकृति को देखता है और उसमें कुछ अपनी रचना मिलाकर उसे समाज के सम्मुख प्रसतुत करता है। इसलिए हम उसे पूर्ण अनुकरण नहीं बोल सकते । 
3- सन्तु आॅग्स्ताईन - आग्स्टाईन ने प्रारम्भ मे तो कला को क्षणिक, विलासितापूर्ण, कामुक और भ्रामक आदि कहकर उसकी निन्दा की परन्तु बाद में कहा कि , ’’ कलाकार कला के माध्यम से जो कुछ रचता है, वह उसके मन की अभिव्यक्ति होती है। चाहे वह सत्य हो या फिर असत्य । 
4- बाउमगार्तेन के अनुसार - बाउमगार्तेन के अनुसार, ’’कला प्रकृति के पूर्ण सौन्दर्य की अनुकृति है कला में पूर्णता की चाह या खोज होती है उनका कहना था कि कलाकार वस्तु को उसके मूल तत्वों मे तोडता है और उन्हे फिर से संगठित करता है। यह नया पुर्नगठित रुप ही कला है। जितने भी पुराने और अजुबे अनुभव कलाकार के भीतर जमा रहते है। जब ये अनुभव मस्तिष्क के कोने से बाहर निकलकर अभिव्यक्ति पाते है। तब वे कला का स्थान पा लेते है। 
5- लैसिंग व काण्ट - लैसिंग ने कला को एक कलाकार की पूर्ण अभिव्यक्ति माना जिसका लक्ष्य केवल सौन्दर्य उत्पनन करना है। जबकि काण्ट ने कला को व्यक्तिगत अनुभव माना । उनके अनुसार कलाकार की दृष्टि मुक्त और सहज है उससे वह नवीन अद्वितीय रचना करता है। उसमें कल्पना और बुद्धि का अदभुत योग पाया जाता है कलाकार को अपनी रचनात्मकता में सौन्दर्य का भी ध्यान रखना चाहिए ताकि वह और भी सुन्दर व आकर्षक लगे व पे्रक्षक उसकी और आकर्षित हो । 
6- हीगेल के अनुसार- कला की परिभाषा में हीगेल ने यूनानी अवधारणा ली । उनके अनुसार कला प्रकृति का प्रतिबिम्ब मात्र नहीं, प्रकृति से उपर भी बहुत कुछ है। कला सत्य की अभिव्यक्ति है। कला का माध्यम भाव संवेग है कला व धर्म सामान्य लोगो को समझ मे आ जाते है परन्तु दर्शन कठिन है। 
7- क्रोचे के अनुसार - क्रोचे के अनुसार कला सहजज्ञान है यह बिम्बो को जोडने वाला सूत्र है । बिखरे हुए बिम्बो को वह एक साथ जोडकर एक सूत्र में पिरोकर कलाकार एक ऐसी कलाकृकित का निर्माण करता है। जिसमें सहजज्ञान हो व वह पूर्ण अभिव्यक्ति हो । 
माइकेल एन्जेलो ने कहा, ‘‘चित्र हाथ से नहीं मस्तिक से बनता है।’’
लियोनार्डो दा विंशी - एक कलाकार अपनी दृष्टि रखता है वह कलाकार इसीलिए है कि वह देखता है जो दूसरे नहीं देखते वे उसकी झलक पा सकते है पर अनुभव नहीं कर सकते । 
ताल्सताॅय - ये कला को सुख विलास आनन्द का साधन नहीं मानते थे कला को मानव मानव के बीच सम्पर्क का साधन मानते है इनके अनुसार, ‘‘कला वह माध्यम है जिसके द्वारा कलाकार अपनी अनुभूत भावनाओं  द्वारा दूसरो को प्रमाणित करता है जो रचना प्रभावित नहीं कर सकती उसे कला नहीं माना जा सकता । 
सर्वश्रेष्ठ कला वह है जिसमें व्यक्त भावनाएं शुभ है जो करुणा और पे्रम का प्रतिपादन करती है। कला एक प्रकार की भाषा है जिसे ताल्सताय ने सम्पे्रषण माना है कला में प्रमाणित का गुण भी होना चाहिए जिसके द्वारा दूसरा व्यक्ति उसकी ओर आकर्षित होता है कला का सम्बन्ध आन्तरिक मन से है जो कलाकार कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है  ।  
कु. हिहानी गौतम
एम0ए0द्वितीय सेमिस्टर
2012
अनुक्रमांक ळ0192516
चित्रकला विभाग
एम0एम0एच0काॅलिज
गाजियाबाद
निदेशक -
डा. लाल रत्नाकर
अध्यक्ष
चित्रकला विभाग
एम0 एम0 एच0 काॅलिज
गाजियाबाद
.....................................................................................
अरस्तू का कला चिंतन 
कु.विनीता 

अरस्तु 384-322 ई0 र्पू0
अरस्तु का जन्म एशिया माईनर की एक यूनानी बस्ती में हुआ। उनके पिता के पूर्वज यूनान बस्ती में हुआ । उनके पिता के पूर्वज यूनान से आये थे और माता एशिया माइनर की थी । उनकी द्विमुखी विचार धारा में ये दोनो प्रभाव स्पष्ट रुप से है, एक ओर वे सत्य का अन्वेषण करने वाले दार्शनिक है, दूसरी ओर संसार का निरीक्षण करने वाले वैज्ञानिक भी । तीसरी और वे अपने समय तक जितने भी विचार सूत्र इकटठे हुये थे उनकी व्याख्या, वर्ग विभाजन और आलोचना करने वाले विचारक भी थे । 
अरस्तु प्लेटो के शिष्य थे, जो स्वयं सुकरात के शिष्य थे, इस प्रकार गुरु शिष्य की परम्परा में बधे हुये तीनो संसार के महानतम विचारकों में हुये। सुकरात और अरस्तु के समय में भी लगभग 200 वर्ष का अन्तर था । अरस्तु प्लेटो के शिरू, उनसे समय ये भी विचारों में भी निकट थे, फिर भी उनसे विचारो में अलग थे ।
लगभग 17-18 वर्ष की आयु मे अरस्तु एथेन्स गये । वहां प्लेटो की अकादमी में दाखिल हुए और उनके निकट आए। प्लेटो इस समय अति उदारवाद -चरम के आदर्शवाद पर थे। शुरु में अरस्तु आदर्शवाद से प्रभावित थे, और वही प्रभाव उन पर बना रहा, किन्तु बाद में एक यर्थाथ - विज्ञान वादी दृष्टिकोण द्वारा उन्होंने सन्तुलन स्थापित कर लिया । 
अरस्तु को ही ये श्रेय भी जाता है कि उस समय यूनान में प्रचलित परस्पर विरोधी विचार धाराओ को, जो सदा एक दूसरे को गिाने, पछाडने में लगी रहती थी, एक दूसरे के निकट लाकर एक सूत्र में पिरोया । उस समय भाव-आाव, ज्ञान-विज्ञान, बुद्धि - अनुभव, अनिवार्य आकस्मिक के मानने वालो में सदा विकट द्वन्द मचा रहता था । अरस्तु ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से सभी का विश्लेषण किया और नये संयोजन द्वारा सभी का संश्लेषण प्रणाली में बांधा । उन सब विरोधो का अन्त कर एक नए विश्व दर्शन की सृष्टि की । चाहे विश्व दर्शन अपनी गहराई और विस्तार में अभूतपूर्व था । इसके दो हजार साल बाद कांट और हेगेल ऐसा ही पूर्ण दर्शन देने में सफल हो सके । अरस्तू इसलिए भी प्रसिद्ध हुए क्योकि उन्होने मेसिडानिया के प्रसिद्ध सम्राट सिकन्दर महान को शिक्षा दी । 
यहा हम अरस्तु के व सौन्दर्य तथा वाला सम्बन्धी विचारो से सम्बन्धित है। अरस्तू का प्रसिद्ध ग्रन्थ काव्य शास्त्र है । इसमें उन्होने कला तथा सौन्दर्य के सम्बन्ध में यूनान के अनुकृति, नैतिकता, शुद्धीकरण, आदि के परम्परा से चले आते सिद्धान्तो की अपने ढंग से व्याख्या की है। 
अरस्तू का सौन्दर्य शास्त्र:- प्रसिद्ध आलोचक बर्नाडे बोसांके ने कहा है कि ‘अरस्तु ने यूनानी सौन्दर्य - शास्त्र को कोई नई दिशा नहीं दी । उनसे पूर्व हुए विचारकों ने सौन्दर्य और कला के सम्बन्ध में जो स्थापनाएं की थी, अस्तु ने उन्ही को स्वीकार किया । मान लिया जाय कि अरस्तु ने कोई नये सिद्धान्त नहीं दिए, यद्यपि ये बात गलत है, पर फिर भी उनका महत्व खत्म नहीं हो जाता । 
अरस्तु ने कला या सौन्दर्य शास्त्र पर कोई अलग ग्रथ नहीं लिखा इस सम्बन्ध में उनके विचार उनके प्रसिद्ध ग्रन्थों काव्यशास्त्र अलंकार शास्त्र तत्वमीमासा में मिलते है। उन्होने नीतिशास्त्र और मनोविज्ञान पर भी पुस्तके लिखी । 
कला :- प्लैटो ने कला का उद्भव प्रोमोथियस नामक देवता से माना था जो प्राणिभाग के लिए कल्याण के लिए अग्नि चुराकर लाये थे - यह एण्क पौराणिक व्याख्या है। इसके विपरीत अरस्तु ने कला का उद्भव मनुष्य के दो हाथ बताए । अरस्तु की व्याख्या वैज्ञानिक होती थी । इसी प्रकार कला की व्याख्या भी अरस्तु ने स्पष्ट शब्दो में की ‘‘ सृजनात्मकता ही कला है ’’ इनकी व्याख्या ठोस तथ्यों पर आधारित और मनोवैज्ञानिकता का पुत लिए थी । 
कला और प्रकृति - अरस्तु के अनुसार प्रकृति केवल बाहर से दिखाई देने वाली वस्तु न होकर सृजनात्मक शक्ति है। जो ब्रहमाण्डीय निय के रुप में व्याप्त है। कला प्रकृति की सीधी अनकृति न करके उसकी पद्धति की अनुकृति करती है। कृति की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य है किन्तु वह बहुत अपूर्ण है, तार्किक शक्ति की सहायता से कला इस कमी को पुरा करने का प्रयत्न करती है इसमें वह चयन की पद्धति का सहरा लेती है।
कला तथा सौन्दर्य मूलक अनुकृति- - यूनान में अनुकृति मूलक कलाए अथवा उदार कलाॅए जैसे शब्द बहुत पहले से प्रचलित थे और सभी में अनुकृति का तत्व अनिवार्य समझा जाता था प्लेटो ने सत्य की अनुकृति मानकर संसार को एक निम्न स्तर पर रखा था । अरस्तु का कथन है कि वस्तुए जैसी होनी चाहिए वैसी ही अनुकृति कला कार को करनी चाहिए और अपने समुख एक प्राप्त किये जा सकने वाले आदर्श का लक्ष्य रखना चाहिए । 
अनुकृति प्रायः तीन वस्तुओ की होती है: नैतिक भाव तथा क्रियाएंॅं । 
भावो की वास्तविकता और कला की सामग्री में परस्पर कोई सम्बन्ध न होने पर भी जब कला में ये दोनो मिलते है तो एक नया रुप ले लेते है और हम वास्तविक जीवन के असन्तोष से मुक्त होकर एक नवीन सौन्दर्य का अनुभव करते है। यही कला की शक्ति है । कला का रुप सादृश्य वस्तुओ के सम्भाव्य भ्रम उपस्थित करता है। 
अनुकृति और संगीत - अरस्तु के अनुसार संगीत हमारे नैतिक चरित्र का सद्यः प्रतिबिम्ब है। लय तथा धुन में हमें अपने भावों की सच्ची अनुकृति मिल जाती है लयात्मक ध्वनिया आत्मा की गति को, उसकी हलचल को निकटतम सादृश्य के साथ प्रस्तत करती है। इसे अनुभव करने की शक्ति केवल हमारे कानो को प्राप्त है। स्पर्श तथा स्वाद इसमे बहुत कम सहायक है। दृष्टि ही इसमे कुछ सहायता कर पाती है क्योकि रंग हमारे नैतिक गुणो के चिन्ह है। समवतः अरस्तु के अनुसार चित्र और मूर्ति कला केवल बहारी भौतिक विशेषताओ को अंकित कर पाती है, नैतिक और आध्यात्मिक तथ्यों को केवल चिन्हो तथा प्रतीको से ही व्यक्त करने में समर्थ है। चित्र तथा मूर्ति स्थिर होने के कारण समयात्रा आदि के द्वारा ही अर्थ को ध्वनित करती है, जबकि संगीत आदि गतिशील कलाए लय के द्वारा अर्थ व्यक्त करती है । नृत्य भी चरित्र, भाव तथा चेष्टाओ की अनुकृति करता है। कविता केवल प्रतीको से कार्य करती है ये प्रतीक बोले हुए शब्द अथवा लिखित भाषा के चिन्ह होते है। ये प्रत्येक मानव समुदाय से अलग अलग होते है कविता के द्वारा प्रस्तुत बिम्बो की जीवन में व्यापकता अन्य कलाओ से अधिक है अतः विषय सामग्री की दृष्टि से कविता का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। 
कविता, संगीत तथा नृत्य तीनो ही लय के द्वारा अनुकरण करते है। तीनो ही संगीत कलाए है। कविता की उत्पत्ति के दो कारण है - 1- अनुकरण की प्रवृत्ति  2- संगीत और लय की प्रवृत्ति । 
अरस्तु ने वास्तु कला को ललित कला नहीं माना है। यूनान में भवन को उपयोगी कला मानने के कारण ही सम्भवतः ऐसा हुआ है। चरित्र भाव तथा चेष्टाओ के आदर्शीकृत एवं प्रस्तुतीकरण को इन्डिय बोध गम्य रुप प्रदान करना भी अरस्तु ने ललित कला माना है। 
अनुकृत वस्तुओ के तीन रुप है:-
1- जैसी वे है
2- जैसी वे कही जाती है। 
3- जैसी वे होनी चाहिए । 
कलाकार इस तीसरे रुप को ही अपनी कृति की आवश्यकता के अनुसार आदर्श बनाता है। 
इस प्रकार अनुकृति से अरस्तु का वास्तविक तात्पर्य सृजन ही है। यह यर्थाथ वस्तुओ के इन्डिय बोध के समान नहीं है। चूकि कलाकार प्रकृति में जो कभी देखता है उसे अपनी कृति में पूर्ण देखना चाहता है अतः एक प्रकार से कला भी प्रकृति से स्पद्र्वा करती है। 
ललित कला तथा उपयोगी कला में अन्तर - यदि कला प्रकृित के किसी कार्य की मी को पूरा करती है तो ललित तथा उपयोगी कला में क्या अन्तर है ? अरस्तु के अनुसार इसका उत्तर यही है कि उपयोगी कला से हम अपने चारो ओर के व्यवहाारिक वातावरण को प्रभावित करते और बदल देते है जबकि ललित कला के रुप की पूर्णता उपयोगी कला के रुप की पूर्णता से भिन्न है। 
कला मिथ्या प्रतीती या भ्रम नहीं है यह विचार के द्वारा सत्य के अन्तरंग में प्रवेश करने वाली पैनी दृष्टि है। इसलिये कला के रुप संसार के रुपो की तुलना में अधिक सहज लगते है कला के रुप हमे भ्रमित नहीं करते, वे हमें किसी विचार की ओर पे्ररित करते है। 
अरस्तु ने इन विचारो मे कला का सौन्दर्य से कोई सम्बन्ध निश्चित नहीं किया गया है। 
कला का सत्य- कविता मानव स्वााव तथा जीवन के सार्वभौमिक पक्ष को सर्वाधिक उचित रीति से व्यक्त करती है। कवि का कार्य उस सम्भाव्य का वर्णन है जो आवश्यकता और सम्भाव्यता के नियम से परिचालित हो । अतः कविता की विषय वसतु का विचार वस्तुओ की आन्तरिक रचना के आधार पर किया जाता है केवल बहारी सादृश्य के आधार पर नहीं । वासतविक जीवन के तथ्यो से कविता का सम्बन्ध बाते हुये अरस्तु कहते है कि कविता का सत्य व्यावहारिक तथ्यो को पार करके सत्य के उच्च स्तर का उद्घाटन करता है। पर जीवन अथवा इतिहास की घटनाए ताज्य नहीं है क्योकि वे ही कला की समृद्ध सामग्री का स्त्रोत है। उनही में से कला के योग्य विषय वस्तु का चयन किया जाता है। 
कला का उद्देश्य - उपयोगी का का उद्देश्य किसी अन्य बहारी उद्देश्य की सहायता करना है। ललित कला का लक्ष्य आनन्द तथा तकपूर्ण आस्वादन प्रदान करना है। आनन्द के कई स्तर है। मनोरंजन भी एक हानि रहित आनन्द है किन्तु वह स्वयं में अपना लक्ष्य नहीं है बल्कि थके हुए मन को ताजा करने के उद्देश्य से किया जाता है। 
त्रासदी की नैतिक श्रेष्ठता- कविता में कामदी की अपेक्षा त्रासदी अधिक श्रेष्ठ है। कामदी केवल मोरंजन प्रदान करती है किन्तु त्रासदी मन के गम्भीर पक्षो की झकजोर देती है। साथ ही अरस्तू ने कलात्मक श्रेष्ठता का आधार बौद्धिक स्रोत के स्थान पर भावात्मक स्त्रोत माना है। उन्हे आनन्द के स्वस्थ उपयोग को भी बुरा नहीं माना है। उनका मत है कि सही पदार्थो से सुख या पीडा की अनुभूति हमें पूर्णता की ओर ले जाती है। 
महाकाव्य तथा त्रासदी में चित्रित किये जाने वाले पात्रो मे नैतिक अच्छाई होती है पर यह वीरता मूलक होती है। 
अनुकृति और शिक्षा- अरस्तु यह मानते है कि मनुष्य अनुकरण से बहुत सी बाते सीखता है अतः कविता और संगीत बालको के लिये शिक्षा का माध्यम हो सकते है। किन्तु सच्ची कला का यह कार्य नहीं है कि वह अपरिपक्व मस्तिष्क को शिक्षित  करे । वयस्को के लिए कवि का कार्य मूलरुप से शिक्षा देना नहीं । अन्य ललित कलाओ की भांति कविता का उद्देश्य भी भावात्मक आनन्द उत्पन्न करना है जो शमुद्ध एवं उच्च स्थिति का आनन्द है। कलाओ का अरस्तु के अनुसार कोइ्र नैतिक लक्ष्य नहीं है फिर भी अरस्तु ने नैतिकता के आधार पर ही पात्रो का वर्गीकरण किया है और केवल उसकी उच्चता या महानता को श्रेष्ठ माना है जो नैतिक हो । इस सिद्धान्त का महत्व केवल यही है कि उन्होने कलात्मक आनन्द की का के सिद्धान्तो को , नैतिक सिद्धान्तो से पृथक रखने का प्रयत्न किया है। 
अनुकरण का सिद्धान्त- मूल रुप से अरस्तु ने अपने पूर्व आचार्यो - सुकात एवं प्लैटो के अनुकरम सिद्धान्तो को माना । किन्तु अरस्तू ने कला के अनुकरण सिद्धान्त को नया रुप दिया अरस्तु ने काव्यशास्त्र को ही अनुकरण कहकर उसे एक स्वतंत्र भूमि दी और उसे विज्ञान के तथ्यो से भ्सच्सतर माना अरस्तु के अनुसार अनुकरण बाहय प्रकृति का नही मानव की अन्तः प्रकृति का होता है और अनुकरण तथ्य का ही नहीं सम्भावनाओ का भी हो सकता है। 
उन्होने यहा तक कहा कि ‘‘ प्रत्येक कला और शिक्षा-पद्धति का लक्ष्य उन अधुरे कामो को पूरा करना है जो प्रकृति से बचे रहे गए है।’’ अर्थात ‘‘ का और शिक्षा दोनो प्रकृति के अधुरे कार्य पूरे करते है ’। 
अनुकरण की प्रवृत्ति मानव मेंस्वभावतः ही है अनुकरण से बच्चो को, बडो को सभी को आनन्द अनुभूति होती है जो एक प्रकार से सार्वभौमिक है। दूसरे, चित्र के रुप में अनुकृति देखने से दो प्रकार का आनन्द मिलता है- एक तो बहारी रुप की पहचान, दूसरे सादृश्य की । 
इसके साथ ही अनुकरण में असन्तुलन में सन्तुलन, अव्यवस्था में व्यवस्था लाना प्रकृति के पूर्ण को अपूर्ण करना भी होता है। अतः अरस्तु के अनुसार कला केवल अनुकरण न ही, रचनात्मक भी है। कला में अनुकरण वस्तु के तीन रुपो का हो सकता है:-
प्रतीयमान रुप
सम्भाव्य रुप
आदर्श रुप 
अतः स्पष्ट है कि ‘ अरस्तु का अनुकरण भावात्मक और कल्पनात्मक पुनः सृजह है’’
अरस्तु ने अनुकरण के आधार पर कला का वर्गीकरण किया । अरस्तु ने कलाओ की अनुकरणमयी और उपयोगी बताया पर अनुकरणात्मक कलाओ को श्रेष्ठकर माना । 
अरस्तु के अनुकरण के आधार पर वर्गीकरण के तीन रुप बताए: 
    2-विषय वस्तु- विषय वस्तु के आधार पर कला के दो भेद माने उपयोगी कला एवं ललित कला जब अनुकरण केवल बहारी हो साथ ही जीवन मे वह उपयोगी भी हो तब वह शिल्प कला कहाती है जैसे बढई का काम, या वास्तुकला । ललित कला में आन्तरिक भावो का अनुकरण होता है। जैसे चित्र-काव्य, संगीत नाट्य आदि । उन्होने सर्वोत्तम कला नाट्य कला और उसमें भी त्रासदी को माना है। 
माध्यम- माध्यम में शब्द ध्वनि, रंग, पत्थर आदि आते है इनके आधार पर कलाओ के अनेक भेद हो सकते है, जैसे संगीत में लय, ध्वनि, काव्य में शब्द, चित्रकला में रंग मूर्ति कला में पत्थर माध्यम है। जो कला कई माध्यमो का एक साथ प्रयोग को अरस्तु उसे ही श्रेष्ठ का मानते है
शैली- शैली या विधि के आधार पर भी कलाओ का वगी्रकरण संभव है जो बहुत प्रकार का हो सकता है। 
अरस्तु के अनुसारः ‘‘कला न तो केवल यर्थाथ का अनुकरण है और न ही भावो का इन्द्रजाल है, वह तो प्रतिदिन के जीवन से उठता हुआ सार्वभौमिक सत्य और मानव जीवन को प्रकाशमान करता हुआ नव आदर्श हो । ’’
इस प्रकार प्लेटो के लिए अनुकरण केवल नकल या पुनरांकन है। किन्तु अरस्तु ने इसमे नया अर्थ भर दिया इसके अनुसार - 
कला का जन्म मानव प्रकृति की सहज प्रवृत्ति से होता है, अतः कला का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है । 
कला का मूल अनुकरण है - सभी कलाएं अनुकरण लिए है अनुकरण काव्य उदभव का मूल स्त्रोत है। 
अनुकरण शिक्षा प्रद है- बाल्य काल ये अनुकरण से सीखा जाता है, भाषा व लोक व्यवहार भी अनुकरण से सीखते है। 
अनुकरण आनन्द प्रदान करता है। अनुकरण से प्राप्त आनन्द सर्वव्यापी होता है, अनुकरण हु-बहू नकली नहीं है, यह वस्तु का पुर्न प्रस्तुतीकरण है। 
अनुकरण द्वारा भय व दुख का निराकरण भी हो सकता है। 
कला आनन्द की अनुभूति का सहजोदे्रक है- यह भावात्मक है। 
सौन्दर्य क्या है - अरस्तु के अनुसार सौन्दर्य उचित आयाम और उचित व्यवस्था से उत्पन्न होता है। सौन्दर्य आकृति में है। अपने ग्रन्थ ‘‘मेटाफिजिक्स’’ में अरस्तु ने कहा सौन्दर्य उपयोगिता से भिन्न है। इन दोनो को समान नहीं माना जा सकता है। अरस्तु ने सौन्दर्य की तीन विशेषताए बतायी ये सौन्दर्य के सार्वभोम तत्व है। 
1. निश्चित आयाम - न वे बहुत बडा न बहुत छोटा, दोनो के बीच का माध्यम होना चाहिये तभी सुन्दर लगेगा । 
2. सन्तुलन या सममिति - कला में परस्पर अंगो में सन्तुलनल व सममति हो ताी वह सुन्दर लगेगी । 
सामंजस्य - किसी भी कलाकृति , वस्तुचित्र काव्य आदि का निर्माण विभिन्न अंगो या अवयवो को मिलाकर होता है। इन अंगो में व्यवस्था या सामजंस्य हो, तभी अवयवो की व्यवस्था सौन्दर्य उत्पन्न करती है। 
सौन्दर्य के अनुभव में लालसा, वासन, उपयोगिता का विचार नहीं होता । 
अरस्तु ने सौन्दर्य और शिव में भेद किया । उन्होने कहा ‘‘सौदर्य वह शिव है जो आनन्दप्रद है। क्योकि वह शिव है’’ सौन्दर्य का आस्वादन नेत्रो द्वारा होता है - इसलिए वह शिव कल्याण सत्य या उपयोगिता से सम्बद्ध नहीं होता । दूसरी बात उन्होने कही है कि सौन्दर्य जड और शिव क्रियाशील है इसलिए भी दोनो अलग है। अरस्तु के अनुसार नाट्य सर्वोपरि कला है क्योकि इसमंे नृत्य संगीत भाव सब निहित होते है। 
अरस्तु का एक कथन अचरज में डालने वाला है कि ‘सभी कला में सौन्दर्य होता है पर सौन्दर्य कला का लक्ष्य नहीं है, खुला रुप से कला वास्तविकता का अनुकरण है यह एक स्वतंत्र स्वयं भू कला है। कला दैविक उन्माद भी नहीं है यह एक सुनिश्चित चेतन किया है- यह महानता व सार्वभोमता पार्टी है। 
अरस्तु का सौन्दर्य सिद्धान्त विश्लेषणात्मक तत्व मीमांसा पर आधारित है। 
अरस्तु का विरेचन सिद्धान्त ‘ अरस्तु के अनुसार, अन्य पूर्ववर्ती यूनानी दार्शनिको की भांति ही त्रासदी का सबसे बडा उद्देश्य विरेचन है त्रासदी दया, भय तथा अन्य सम्बद्ध भावो को जो कि सभी मनुष्यो के हृदय मे रहते है , उत्तेजित करती है और इस प्रकार उनसे छुटकार दिलाती है जिनका अनुभव आनन्द प्रद होता है। 
विरेचन का यह सिद्धान्त मनो चिकित्सा विज्ञान को तथ्य को ही प्रकट नहीं करता वरन कला का भी एक नियम प्रस्तुत करता है चिकित्सा विज्ञान में विरेचम का अर्थ शरीर में होने वाली किसी पीडा या रोग बाहर निकालना है। 
अरस्तु की मान्यता है कि कला हमारे अहित नही फरती, सह सत्य से दो गुनी दूर नहीं है। वह हमारे भावो का विरेचन करती है। साथ ही प्रकृति की अपूर्णता की कला में पूणता प्राप्त होती है अरस्तु सौन्दर्य की नीति मूलक परिभाषा भी देते है सौन्दर्य वह शिव है जो आनन्द प्रद होता है। क्याकि वह शिव होता है ’ अर्थात कल्याणकारी होने के कारण ही सौन्दर्य से आनन्द मिलता है। इस प्रकार अरस्तु कल्याणकारी को ही सुन्दर तथा आनन्द प्रद मानते है। 
विरेचन शब्द का पहला प्रयोग प्लैटो मे मिलता है परन्तु इसका विशिष्ट रुप से प्रयोग अरस्तु ने किया । विरेचन का अर्थ है मन के दूषित भावो को बाहर निकालना शुद्धि करना इसके कई अर्थ है:-
धार्मिक कार्य - धार्मिक प्रक्रियाओं द्वारा बाहय उत्तेजना का शमन और आत्मिक शुद्धि एवं शांति । 
नीतिपरक अर्थ- अन्तः वृतित्यों का सामजंस्य अर्थात मनोविकारो के उत्पन्न होने के बाद, उद्वेग का शमन तथा उससे प्राप्त मानसिक विश्रान्ति, मनोविकारों में दो है। - भय तथा पीडा जिनका रेचन सम्भव है। 
कला परख अर्थ- चह अर्थ जर्मन कवि गेटे और कुछ अंगे्रजी कवियो में मिलते है प्रो0 बूचर , अरस्तु के व्या थे, उनहोने विरेचन को एक कला सिद्धान्त माना । सौन्दर्यानुभूति एवं आनन्द दर्शक व कलाकार दोनो को ही मिलता है कलाकार को कला सृजन से और अशसक को कला के अनुभव से मनोभाव उद्वेलित होकर शात हो जाते है मानसिक सन्तुलन और कलात्मक परितोष मिलता है। 

कु. विनीता 
एम0ए0द्वितीय सेमिस्टर
2012
अनुक्रमांक - 0192513
चित्रकला विभाग
एम0एम0एच0कालिज
गाजियाबाद
निदेशक -
डा. लाल रत्नाकर
अध्यक्ष
चित्रकला विभाग
एम0 एम0 एच0 काॅलिज
गाजियाबाद

...............................................................................................................
चतुर्थ सेमेस्टर 
चरम पुनरुत्थान काल में फ्लोरेन्स के कलाकार
लियोनार्डो द विन्ची, माइकेल एंजिलो, रैफेल
-कु.क्षमा चौधरी 
1- चरम पुनरुत्थान काल 
2- चरम पुनरुत्थान काल में फलोरेन्स के कलाकार
लियोनार्डो दा विन्ची

लियोनार्डो की खोज
ख- चित्राकंन कार्य
ग- लियोनार्डो का मूर्तिशिल्प
3- माइकेल एंजिलो
1- ब्रमान्टे से अनबन
2- चित्राकन कार्य
3- सिस्टाइन चैपल की छत का चित्रण
4- मूर्तिशिल्प
चरम पुनरुत्थान काल:-
चरम पुनरुत्थान काल में चित्रकारों के हाथों में कला का उद्देश्य केवल बाईबिल की शिक्षा ही नहीं बलिक शुद्ध सौन्दर्य का सृजन था । चित्र में विषय की अपेक्षा रंग और रुप का अधिक महत्व था । जब चित्रकारों को चर्चो की दिवारें सजाने का कार्य सौंपा गया तो उनहोने कला की इस नयी अवधारण को ही अपनाया । 
इस प्रकार एक ओर जहाॅं इस नयी कला पर धर्म की मुहर लगायी गयी , वहीं दूसरी ओर इसने धार्मिक बन्धानों से स्वयं को मुक्त भी कर लिया । पुनरुत्थान काल की विवरणात्मकता को त्याग देने से ही चरम पुनरुथान शैली का विकास हुआ ।
चरम पुनरुत्थान काल में फ्लोरेन्स के 3 कलाकार प्रमुख है:-
1. लियोनार्डो द विन्ची
2. माइकेल ऐजिंलो
3. रैफेल  


1.लियोनार्डो द विन्ची (1452-1519)
लियोनार्डो केवल एक कलाकार ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व की एक महान विभूति है।
लियोनार्डो का जन्म 1452ई. मेें हुआ था । यह फ्लोरेन्स के एक वकील का अवैध पुत्र था । लियोनार्डो का जन्म विन्ची नामक स्थान पर हुआ था । आरम्भ में इनहोने कला की शिक्षा वेरोच्चिओं से ग्रहण की । वेरोच्चिओ ‘देनातोल्ले’ का शिष्य था ।  1472 में लियोनार्डो चित्रकारों के एक संघ का सदस्य बन गया । 
लियोनार्डो की खोज - लियोनार्डो लगभग प्रत्येक क्षेत्र में विचारों और खोज में व्यस्त  रहे । किन्तु धीमी गति से कार्य  करने के कारण इनके अधिकांश कार्य अपूर्ण ही रह गये । शरीर में रक्त के परीभ्रमण की खोज इसी ने की थी युद्ध हेतु सशक्त गाड़ी का आविष्कार भी इसी ने किया । 
वस्त्रों की सिकुडनो को नवीन ढंग से प्रस्तुत करने के सम्बन्ध में भी लियोार्डो ने अनेक प्रयोग किये । क्यूनिख के मैडोन्ना चित्र में उसने
तैल चित्रण सम्बन्धि नवीन प्रयोग किये । इसमें दानेदार धरातल पर ओस की बूॅदे अंकित है जिन्होने उसके समकालीन कलाकारों को आश्चर्य में डाल दिया । 
चित्रांकन कार्य  - 1481 के लगभग लियोनार्डा को फ्लोरेन्स के निकट ईसाई सनतो के एक मठ में राज्याधिकारियों द्वारा ईसा की वन्दना विषय के चित्रण के लिये आमंत्रित किया गया । इस चित्र मे वे सभी विशेषताऐं मिलती है जो 15वीं शती के अन्त मे कला का लक्ष्य 
बन चुकी थी । यद्यपि यह चित्र पूर्ण नहीं हो पाया किन्तु इससे सम्बन्धित अनेक स्केच उसने बनाये । 
1483 में वह मिलान गया और मिलान के डयूक को पत्र लिखा तथा दरबार में नौकरी की प्रार्थना की । मिलान पहुॅंचकर उसने श्वेत रोमयुक्त कोट वाली महिला  का चित्र अंकित किया जो निश्चित ही मिलान के डयूक की पत्नी थी ।  
लियोनार्डो ने शैलखण्डो की कुमारी शीर्षक से 2 चित्र अंकित किये । पहले चित्र में फ्लोरेन्स के परम्परागत शैली का प्रभाव है। लियोनार्डो ने कुमारी लीडा और हंस के प्राची आख्यानो के आधार पर भी चित्रांकन किया । उसके ऐसे दो चित्र लीडा और हंस के नाम से विख्यात है। 
मिलान के ही एक उपासना ग्रह में लियोनाडो ने ईसा का अन्तिम भोजन चित्र आरम्भ किया । इसमे उसने फै्रस्को के स्थान पर तैल पद्धति से प्लास्टर की भिति पर काकर्य करने का प्रयोग आरम्भ किया । चरम पुनरुत्थान काल का यह पहला चित्र है जिसमें तनयावपूर्ण स्थिति और ईसा के शिष्यों की मुखाकृतियों की वैज्ञानिकता पर बल दिया गया है। 
1499 में मिलान पर फे्रच का अधिकार हो गया और लियोनार्डो फलोरेन्स लौट        आया । 1502-03 तक यह सीजर बोरजिया  का सैनिक इन्जीनियर रहा । इस समय शव गृहों में जाकर उसने अनेक शवों का अध्ययन किया जिसके फलस्वरुप वह अपने समय का सर्वश्रेष्ठ शरीरविद् कहा जाने लगा । 
1503 में लियोनार्डो को माइकेल एंजिलो के साथ फलोरेन्स की विजयों के युद्ध दृश्यों के दो विशाल भित्ति चित्र अंकित करने को कहा गया । इन दोनो कलाकारों में अनवन रहती थी और वे एक दूसरे को पसंद भी नहीं करते थे अतः ये चित्र पूर्ण नहीं हो सके । लियोनार्डो के कुछ चित्र मैडोन्ना और शिशु ईसा  के है जिनमें कोई सन्त साथ साथ चित्रित है। 
1500-1504 के मध्य उसने फ्लोरेन्स के एक अधिकारी की पत्नी का व्यक्ति चित्र बनाया यही विश्व प्रसिद्ध मोनालिसा है। इस चित्र में अंकित नारी की मुस्कान रहस्यपूर्ण सी लगती है। तकनीकी दृष्टि से आॅखो तथा होठो की रेखाऐं बार बार खीचने से यह प्रभाव स्वयं यही उत्पन्न हो गया है। लियोनार्डो का विचार था कि छाया तथा प्रकाश परस्पर मिले हुए होने चाहिए । उनके मध्य किसी सीमा रेखा का आभास न हो । यह चित्र मुखाकृति की गढनशीलता का आदर्श माना जाता है। 1507 में लियोनार्डो ने सन्त जोन  का एक चित्र बनाया है। लियोनार्डो के अन्तिम वर्ष वैज्ञानिक शोधो में व्यतीत हुए । इनहोने हजारो रेखाचित्र बनलाये अनेक चित्र रंगे किन्तु थोडे चित्रो को ही पूर्ण कर सकें । 
1.लियोनार्डो का मूर्तिशिल्प
चरम पुनरुत्थान काल के महान कलाकारों में से लियोनार्डो प्रथम थे । मूर्तिशिल्प के क्षेत्र में इनका शिक्षक वेरोच्चियो  था । इनसे लियोनार्डो ने मानव आकृतियों को वातावरण से सम्बन्धित स्थितियों में निर्मित करने की शिक्षा प्राप्त की । मूर्तियो में उसने सुविचरित गढनशीलता को प्रभावी रुप में छाया प्रकाश द्वारा प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया । इसके सर्वोत्तम प्रमाण उनकी दो अशवारुढ़ प्रतिमाऐं  की योजा से मिलते है। 1507 में उसने मिलान में ज्यान ज्याकोमो त्रिवुलिज्यो के स्मारक निर्माण की योजना बनयाी जो वहाॅं फें्रच सेनाओ का कमाण्डर था । इसके लिए भी उसने अश्वारुढ़ प्रतिमा बनायी जानी थी पर यह कार्य भी आरेखनों तक ही सीमित रह गया । 
2.माइकेल एंजिलो (1974-1564) 
फ्लोरेन्स में चरम पुनरुत्थान काल का दूसरा महान कलाकार माइकेल एंसजिो था । इसका जन्म फोरेन्स के केपरीज नामक स्थान पर 1474 मे हुआ था । यहाॅं इसके पिता एक रेजीडेण्ट न्यायधीश थे ं 1488 में पारिवारिक विरोध का सामना करते हुए उसने ोमेनिको घिरलैण्डियो की चित्रशाला में कार्य सीखना आरम्भ किया । कुछ समय पश्चात वह लोरेन्रूजो द मैडिसी के संरक्षण में बर्तोलदो के पास कार्य सीखने पहुंच गया । 
ब्रमान्ते से अनबन  
ब्रमान्ते की माइकेल एंजिो से अनबन रहती थी । माइकेल जब मैडिसी का मकबा बना रहा था तो ब्रमान्ते ने मैडिसी को बहका दिया कि अपने जीवन काल में अपना मकबरा बनवाना अशुभ है जिससे मैडिसी ने मकबरे का निमाण तुरन्त रोेक दिया । 
इसी प्रकार जब माइकेल एसिजलो सिस्टाइन चैपिल की छत चित्रित करने को बुलाया गया तो बमान्ते ने अपने चित्रकार दल को वहाॅं उसकी सहायता करने के बहाने भेजा और मचान भी बनवाया किन्तु माइकेल एंजिलो को शक हो गया और उसने चित्रकार दल को लौटा दिया तथा मचान को खुलवाकर नया मकचान बनवाया ।
चित्रांकन कार्य:-
1905 के लगभग फलोरेन्स में माइकेल एंजिो ने पवित्र परिवार का चित्रण किया । माइकेल एंजिो ने ग्रीक पार्थीनन के पेडीमेण्ट मेें उत्कीर्ण आकृतयो तथा किन्नरो के रीलिफ के आधार पर एक चित्र बनाया था जो खो गया । उसने यह भित्ति चित्र संसद भवन हेतु बनाया था । इससे सम्बन्धित पीसा के युद्ध का दृश्य अंकित करने हेतु उसने जो रेखाचित्र बनाये थे वेक अब स्नानाथी के नाम से विख्यात है। ये चित्र वर्षो तक फलोरेन्स के प्रत्येक नवयुवक कलाकार हेतु दर्शनीय तथा अनुकरणीय बने रहे । 
पाल तृतीय  ने इन्हे दो अन्य  चित्र बनवाने हेतु आमंत्रि किया गया । ये सन्त पाल की बातचीत और सनत पीटर की सूली है। माइकेल एंजिलो ने एक अन्य पीएटा भी चित्रित की जो भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से बहत उद्धेगण्पूर्ण है। इसमें ईसा और मेरी की आकृतियाॅं यपरस्पर लीन होती हुई दिखाई गयी है। इसी पर कार्य करते हुए 12 फरवरी 1564 में इनकी मृम्त्यु हो गयी । 
सिस्टाइन चैपिल की छत का चित्रांकन - 
1506-08 तक पोप द्वितीय के मकबरे का निर्माण कार्य करने के बाद 1508 में वह रोम रौटा और सिस्टाइन चैपल की दत का चित्रण पुनः आरम किया । अपने साथियो एवं शिष्यो के कार्य से असंतुष्ट होकर उसने समस्त चित्रो को स्वयं ही चित्रित करने का निश्चय किया । 
ब्रमान्ते की माइकेल एंजिलो  से अनबन रहती माइकेल एंजिो जब मेसिी का मकबरा बना रहा था तो ब्रमान्ते ने मेडिसी को बहका दिया जिससे मेडिसी ने मकबरे का कार्य तुरन्त रोक दिया । इसी प्रकार जब एंजिले को सिस्टाइन चैपल की छत चित्रित करने को बुलाया गया था तो ब्रमान्ते ने अपने चित्रकार दल को वहाॅ उसकी सहायता करने के बहाने भेजा और मचान भी बनवा दिया । किन्तु माइकेल एंजिलो ने चित्रकार दल को लौटा दिया और उस मचान को खुलवा कर नया मचान बनवाया । 10 मार्च 1508 मे उसने लिखा था मै मूर्तिकार माइकेल एंजिलो ने आज इस चैपिल को चित्रित करना आरम्भ किया । अगले वर्ष 27 जनवरी 1509 में उसने पुनः लिखा - यह चित्राकन मेरा व्यवसाय नहीं है ............. मै व्यर्थ ही अपना समय नष्ट कर रहा हूं । 
माइकेल एंजिलो ने भित्ति चित्रण तकनीक की बारीकिया सीखी और चैपिल को अन्दर से बन्द करके चित्र बनाता रहा । जब उसने मचान खोलने की आज्ञा दी तो उसके प्रशंसकों तथा प्रतिद्वन्दी सभी चित्र देखकर आश्चर्यचकित रह गये । उनके ये चित्र सर्वरेष्ठ तथा महान कलाकृति है और केवल 37 वष की आयु में इन्हे भी एक महानतम चित्रकार मान लिया गया । ये चित्र 3 समूहो में है और प्रत्येक के 3 खण्ड है। 
पहला समूह:
1. ईश्वर द्वारा प्रकाश को अंधकार से प्रथक करना । 
2. चाॅंद तारो की सृष्टि । 
3. पृथ्वी को आर्शीवाद । 
दूसरा समूह:
1. आदम की सृष्टि । 
2. हव्वा की सृष्टि । 
3. स्वर्ग से पतन । 
तीसरा समूहः
1. नूह का बलिदान । 
2. प्रलय 
3. नूह का नशा । 
इनके अतिरिक्त उसने धर्मदूत और भविष्यदृष्टा चित्र बनाये साथ ही ईसा के जन्म की भवियवाणी भी चित्रित की । चारो कोनो में मुक्ति सम्बन्धि दृश्य बनाये । नीचे अंधेरे भाग में ईसा के पूर्वजो का चित्रण किया । 
1536 में इनहे पुनः सिस्टाइन चैपल की वेदी की भित्ति पर अन्तिम न्याय का चित्रण  करने के लिये आमंत्रित  किया गया । इसी बीच रोम पर आक्रमण हुआ जिससे माइकेल एंजिो के मन में एक प्रकार की निराशा व्याप्त हो गयी जो इस कृति में स्पष्ट दिखाई देती है। 
मूर्तिशिल्प
माइकेल एंजिलो ने मूर्तिशिल्प की शिक्षा मेडिसी द्वारा संचालित गार्डन स्कूल में प्राप्त की । रोम में वह प्रधानतः मूर्ति कला तथा वास्तुकला के सृजन में अधिक लगा रहा । इसका महत्वपूर्ण मूअिर्तशिल्प फ्लोरेन्स में है। सिस्टाइन चैपल की छत के चित्रों में इन्होने अपना नाम मूर्तिकार माइकेल एंजिलो लिखा । 
1496 में रोम में इन्होने पहले बेकस की मूर्ति बनायी और सेण्ट पीटर्स मे पीएटा की । ये मूर्तियाॅ इनके शरीर शास्त्र एवं वस्त्रों की सिकुडनो के पूर्ण ज्ञान को प्रकट करती है 1501-04 के मध्य उसने डेविड की मूर्ति बनायी और ब्रजेज मैडोन्ना का निर्माण किया । 1503 में इन्होने बारह सन्तों की प्रतिमाऐं गढने कार्य  अपने हाथो में लिया जिसे वह पूर्ण नहीं कर सके । 1494 में उसने सोते हुए कामदेव की मूर्ति बनायी । और उसे प्राचीन यूनानी कलाकृति कह कर बेच दिया । 
पोप जूलियस अपने जीवन काल मे ही अपने लिये एक सुन्दर साधिक का निर्माण कराना चाहते थे । माइकेल एंजिलो ने करीब 40 वर्ष तक इसका निर्माण अपने निर्देशन मे कराया और 70 वर्ष की आयु में 1545 में उसने पोप की विशाल कांस्य प्रतिमा का निर्माण इसके लिये किया । इसके अतिरिक्त इसकी एक मूसा का मूर्ति भी बहुत प्रसिद्ध है। 
लोरेन्ज मेसिी उर्बीनो का डयूक था । उसका मकबरा बनाने का कार्य भी ाइकेल एंजिलो को सौपा गया । जिसमें गुम्बदो के रुप में निर्माण है। प्रत्येक के केन्द्र में जूलियानों मेकडीसी तथा लोरेन्जो मेडीसी की मूतियाॅ है। जिनके बीच शव पेटिकाओ पर संध्या प्रातः दिन तथा रात्री की रुपक प्रतिमाऐ बनायी । दिन तथा प्रातः को पुरुष और संध्या तथा रात्री को नारी के रुप में दिखाया गया है। 
3-रेैफेल:- 1483-1520
रैफेल फलोरेन्स में चरम पुनरुत्थान काल के तीनो कलाकारो में सबसे छोटा था । रैफेल का जन्म उर्बीनो में हआ था । रैफेल के पिता जियोवान्नी सान्ती एक चित्रकार थे ं 1500 में रैफेल पेरुजिहनो के यहाॅ कार्य सीखने लगा । सैनिक का स्वप्न नामक चित्र की रचना उसने इसी समय की जब वह मात्र 17 वर्ष का था । 150-10 का युग रैफेल के लिये एण्क महान चित्रकार के रुप में उदय हुआ।
लियोनार्डो व माइकेल एंजिलो का प्रभावः-
लियोनार्डो की कुमारी, शिशु तथा सन्त के चित्रो से रैफेल ने एक नवीन प्रकार के मैडोन्ना चित्रों का विकास किया । तथा मोनालिसा के आधार पर व्यक्ति चित्रो की एक नयी पद्धति का आरम्भ किया । जिसका उदा. मेडालेन्ना डोनी का व्यक्ति चित्र है। विन्ची के छाया प्रकाश के सिद्धान्तो का प्रभाव रैफेल की पृष्ठ भूमियों में इसी समय से मिलना आरम्भ हुआ । माइकेल एंजिलो के प्रभाव से उसकी आकृतियो की रेखाऐ शक्तिशाली और संयमपूर्ण हो गयी। 
चित्रांकन कार्यः-
1508 में वह रोम गया तथा पोप जूलियस द्वितीय के द्वारा बेटीकन मे चित्रांकन के लिये नियुक्त किया गया । शीघ्र ही यह वहाॅ का प्रधान चित्रकार हो गया । यहाॅ रैफेल ने स्कूल आॅफ ऐथेन्स नामक प्रसिद्ध कृति बनायी । यह चरम पुनरुत्थान काल की उत्मम कृति मानी जाती है। इसमें प्लेटो तथा अरस्तु को बात करते हुए बाहर आते दिखाया है। प्लेटो की हस्तमुद्रा उपर की ओर संकेट कर रही है। इसके वस्त्रो का रंग लाल और उसकी सलवटे उध्र्वलय में है। अरस्तु की हस्त मुद्राऐ एवं नीले वस्त्र सभी क्षेतिज कर्णवत है जो इसी संसार को महतविपूर्ण मानने का संकेत कर रहे है। 
1514 में रैफेल सेण्ट पीटर के गिरजाघर का प्रमुख शिल्पी बन गया । रोम के फर्नेसिया नामक स्थान पर उसने जो ाित्ति ििचत्र अंकित किये वह उत्कृश्ट श्रेणी के है। वह टेपेस्ट्री डिजाइन का भी आविष्कार कर रहा था । जिससे अंकित पर्दे सिस्टाइन चैपल मे टांगने की योजा थी । इसी समय वह ओल्ड टेस्टामेण्ट के आधार पर भी चित्र बना रहा था। 1515 में उसकी एक सिस्टाइन मैडोन्ना है जो उसने अकेले ही चित्रित की है। इस चित्र की मैडोन्ना 

पृथ्वी की मानुषी न रह कर स्वर्ग की देवी हो गयी है और उसे बादलो में तैरते हुए चित्रित किया गया है। 
रैफेल की अन्तिम श्रेष्ठ कृति ईसा का दिव्य स्वरुप धारण करना है जो उसने 1517 मे आरम्भ की तथा 1520 में अपनी मृत्यु तक पूर्ण नहीं  कर सके । इसे रैफेल के प्रिय शिष्ट ज्यूलियो रोमानो द्वारा  पूर्ण किया गया । 37 वर्ष की आयु में ही रैफेल की मृत्यु हो गयी ।  किसी भी चित्रकार ने इससे पूर्व इतनी सामाजिक पृतिष्ठा प्राप्त नहीं की थी । 
रैफेल को शताब्दियो तक समूह संयोजन का आचार्य माना जाता रहा है व्यक्तियों के समूह, समूहों का सम्पूण्र चित्र मे अनुपात, चित्र की उंचाई और गहराई का अनुपात, और व्यक्तियो की विभिन्न मुद्राऐं इन सब में उसने कमाल कर दिखाया है। रैफेल की सर्वाधिक ख्याति उसके मैडोन्ना चित्रो से है। रैफेल की कला से ही बरोक शैली का विकास हुआ । 
............

कु. क्षमा चैधरी
एम0ए0 चतुर्थ सेमिस्टर 2012
अनुक्रमांक जी 0190010002
चित्रकला विभाग
एम.एम.एच.कालिज  गाजियाबाद
निर्देशन .......
डा. लाल रत्नाकर
अध्यक्ष
चित्रकला विभाग,एम. एम. एच. कालिज गाजियाबाद
.............................................................

..........................
एम्.एम.द्वीतीय   सेमेस्टर -2012

कला क्रोचे के अनुसार:-
प्रतिभा शर्मा 
(एम्.ए .II nd Sem-2011-2012)
क्रोचे ने कला को गीतिमय, लययुक्त, सहज ज्ञान माना है। बीसवीं शताब्दी तक यह सिद्धान्त आया और पचास सालों तक नवीन सौन्दर्य शास्त्र पर छाया रहा। इनका कला सिद्धान्त गागर में सागर के समान है। सरलता व संक्षेप का नमूना है।
कला भाव की अभिव्यक्ति है या कल्पना की आदि अज्ञान, कला मानव जीवन की प्राथमिक भाषा है। यह युवाओं के उद्दाम संवेगों, आकर्षण व घृणा के रूप देवी है। कला तो केवल अनुभव सामग्री रूप में आने वाली आकार रहित कच्ची सामग्री को रूप आकार देती है।
कला- क्रोचे के अनुसार सत्य व नैतिकता से सम्बन्धित नहीं। यह तो मानव मात्र की बालिश तोतली वाणी को स्पष्ट रूप देती है।
कोचे ने अपने कला दर्शन में सौन्दर्यवाद स्वतन्त्र सौन्दर्यवाद कहा जाता है।
क्रोचे के अनुसार सौन्दर्य:-
क्रोचे के अनुसार सहज ज्ञान की सफल अभिव्यक्ति सौन्दर्य है और जो अभिव्यक्ति सफल नहीं है, वह कुरूप है। अभिव्यंजना आन्तरिक है और वही सौन्दर्य है। यह पूरी तरह मानसिक क्रिया है। ब्राह्य वस्तुऐं स्वतः सुन्दर नहीं है, सौन्दर्य अभिव्यक्ति सहायक है। सौन्दर्य आत्मा है, कला सौन्दर्य है, सौन्दर्य कला में है, सौन्दर्य आन्तरिक है। यह किसी बाहरी नियम, अनुशासन में नहीं बंध सकता है। उसके कोई निश्चित नियम भी नहीं है।
क्रोचे का विचार:-
क्रोचे ने अपने कला दर्शन में पश्चिम की स्वच्छन्द वादी विचारधारा पर समीक्षा की है। क्रोचे ने कला को अन्त प्रज्ञा (आन्तरिक कल्पना) कहा है। अतः इस प्रकार आन्तरिक कल्पना व विविधता को अलग-अलग रूपों में विभिन्न विभाजित नहीं यिका जा सकता।
क्रोचे ने कला के लिए मानव आत्मा के दो पक्ष मानते हैं, सिद्धान्त पक्ष, व्यवहार पक्ष। कला को उन्होंने सिद्धान्त पक्ष के अन्तर्गत माना है।
हमारे छोटे-छोटे व्यवहार की प्रेरणा हमारी आन्तरिक कल्पना है और बाहरी व्यवहार उसका प्रतिफल है। व्यवहार का सम्बन्ध मानसिक संकल्प से है। सिद्धान्त का सम्बन्ध बुद्धि से है। हमारी आन्तरिक जगत में दो ही पक्ष हैं, मन और प्रज्ञा। हम अपने मन की अभिव्यक्ति को भावना के द्वारा दर्शाते हैं और प्रज्ञा को माइण्ड के द्वारा व्यवहार करते हैं। कलाकार की संकल्प करने की शक्ति उसकी रचना में व्यक्त हो जाती है। यही सिद्धानत पक्ष है। अन्य लोगों का मन का संकल्प अन्य संसार की क्रियाकलापों, सामाजिक गतिविधियों में लिप्त हो जाता है। यह व्यवहार पक्ष है।
कलाकार तो बाहरी जगत के संवेदनाओं को अपने मानस पटल पर सिर्फ बिम्बों के रूप में ग्रहण करता है। कला में चिन्तन व अनुभूति साथ-साथ चलते हैं। कलाकार की यही प्रतिभा की विशेषता कला को सभी शास्त्रों से अलग और स्वतन्त्रता शासन प्रदान करती है।
चेतना के क्रमिक विकास में मानव ही एक ऐसा प्राणी है। जिसके अन्तर्मन में अहम की भावना का उदय हुआ। मानव ने इस अहं को प्रज्ञा तथा भावों तक विकसित कर लिया है। अन्तः प्रज्ञा व्यक्ति का ज्ञान है, तार्किक ज्ञान सार्वभौमिक का ज्ञान है। तर्क के आधार पर ज्ञान की उपलब्धि बुद्धि द्वारा प्रत्यय के रूप में होती है, जो रूप बार-बार उपस्थित रहते हैं। अतः उनकी सामान्यतः विशेषताओं के आधार पर उनकी एक बुद्धि स्थिर हो जाती है, क्योंकि कला का यही प्रत्यय है और यही बुद्धि का विषय है। बिना बिम्ब के प्रत्यय का विकास नहीं हो सकता है।
ज्ञान का अर्जन इन रूपों में विकसित होता है। बिम्ब से प्रत्यय मूर्त से अमूर्त विशिष्ट से सामान्य। यह कहना गलत है कि हमारी आन्तरिक कल्पना अंधी होती है और प्रज्ञा ही स्वतन्त्र भी होती है, पर अन्तः प्रज्ञा की अपनी निजी दृष्टि होती है। किसी भी कलाकृति में मूल आन्तरिक कल्पना ही होती है, जबकि दर्शन सिद्धान्त के पीछे कोई प्रत्यय (आयडिया) होता है। कलाकृति के सम्पूर्ण अवयय अलग-अलग नहीं होते हैं। ये सभी मिलकर कृति की एकता का प्रतिपादन करते हैं।
अन्तः प्रज्ञा व प्रत्यक्ष ज्ञान:-
कुछ विचारक अन्तः प्रज्ञा के दो भेद किये हैं। एक सामान्य कल्पना व दूसरी कलात्मक कल्पना क्रोचे के विचार से कलात्मक प्रज्ञा कुछ विशिष्ट प्रकार की होती है। कला सामान्य अनुभव में आने वाली सरल अन्तः प्रज्ञाओं के स्थान पर बड़ी और कठिन है। ये अन्तः प्रज्ञा संवेदनाओं और प्रभावों की होती है। कला भी प्रभावों की अभिव्यक्ति है। कला का दर्शन सब जगह एक जैसा है। उसमें छोटी कृति या बड़ी कृति का भेद नहीं, अर्थात् उसमें भावों का समावेश एक समान होता है।
कलात्मक प्रतिभा:-
आन्तरिक कल्पना की शक्ति केवल मानव मात्र है। कलाकार में उसकी मात्रा अधिक होती है। कलाकार में प्रतिभा जैसा कोई अलग गुण नहीं होता। कलाओं में तो हम अपना रूप देखते हैं। अगर दर्शक व कलाकार की कल्पना एक समान नहीं होता, तो हमें कलाकृतियों का आस्वादन कैसे प्राप्त होता?
अन्तर्वस्तु और रूप:-
कला हमेशा से ही एक विवादग्रस्त प्रश्न यही उठता है कि सौन्दर्य के कलात्मक तथ्य केवल अन्तर्वस्तु या बाहरी रूप या दोनों एक साथ। कुछ विद्वान मानते हैं कि कलाकृति की अन्तर्वस्तु और अन्य प्रकार की अन्तर्वस्तु से अलग होती है। सृष्टि की सभी वस्तुएं कला की विषयवस्तु नहीं बन सकती, पर यह मत असत्य है। यह तो कलाकार पर निर्भर करता है कि उसकी कलाकृति कैसे बनी? वह बुरी से बुरी विषयवस्तु पर भी एक अच्छी रचना कर सकता है। सिर्फ अच्छी कलाकृति के लिये महान कलाकृतियां ही आवश्यक नहीं।
कला व अनुकृति:-
क्रोचे ने कला और अनुकृति के विषय पर भी अपनी राय दी है। कला में प्रकृति की अनुकृति का कुछ ना कुछ अंश अवश्य रहता है। कला में प्रकृति की अनुकृति ज्यों की त्यों नहीं रहती है। वह प्रकृति का एक आदर्श व नवीन रूप में संशोधित करती है। यह कोई भ्रम न होकर चिन्तन मूलक और सिद्धान्त पर आधारित है। चिन्तन और सिद्धान्त हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं। कला केवल भाव नहीं है, क्योंकि अन्तः प्रज्ञा के स्तर पर जाकर सभी भाव चिन्तन के सहयोग से ऊँचे उठ जाते हैं। इस प्रकार यह भी गलत है कि कला केवल कुछ विशिष्ट एन्द्रिय बोध है। यह तो केवल बाहरी माध्यमों का भेद है और कलाकार कान व नेत्रों के अलावा और अन्य इन्द्रियों से सम्बन्धित अनुभव का संकेत देता है।
अभिव्यक्ति अखण्डता:-
कलात्मक अभिव्यक्ति अखण्ड होती है। किसी कृति को अलग-अलग अंगों में अलग अभिव्यक्ति नहीं होगी। यह हो सकता है कि कृति का एक-एक अंग का आस्वादन करते हुए अनुभव करने में कुछ समय लगे।
कला और दर्शन:-
कला सिद्धान्त या अन्तः प्रज्ञा का क्षेत्र प्रत्यक्ष जगत की व्यक्त सत्ता के रूपों में होता है। विज्ञान व दर्शन का सम्बन्ध प्रत्यय (तर्क) से है, तो हमें सत्यता का आभास कराते हैं। इस प्रकार कला व दर्शन भिनन हैं। कलाकार न तो प्रकृति की नकल करता है, न ही इतिहास की कला के सत्य का अर्थ तो केवल यही हो सकता है कि उसकी अभिव्यक्ति सुसंगठित, सुसंगम और एक समान है। कलाकृति वैज्ञानिक विचार दर्शन या सिद्धान्त का उदाहरण प्रस्तुत करती है।
कला और सौन्दर्य:-
क्रोचे के अनुसार कला में प्रयोगात्मक कार्य के साथ-साथ सौन्दर्य की भावना भी साथ-साथ चलती है, अर्थात् हम भले ही कितने कलात्मक प्रयोग क्यों न कर ले उसमें सौन्दर्य भी होना जरूरी है। क्रोध को व्यक्त करना या क्रोध के विषय में बात पढ़ना या एक ही बात नहीं। इसलिए इसमें पहली अभिव्यंजना असुन्दर है, दूसरी सुन्दर अथवा कलात्मक।
भौतिक सौन्दर्य के माध्यम में ही कलाकृति को हम सुन्दर वस्तु मानते हैं। यह शब्दों का सिर्फ एकमात्र भ्रम है, क्योंकि सौन्दर्य कोई भौतिक तथ्य नहीं है। यह वस्तुओं से सम्बन्धित न होकर मानवीय की क्रिया तथा आध्यामिक शक्ति से सम्बन्धित है। यदि वस्तु को सुन्दर माना जाये तो उसके रूप और अन्तर्वस्तु की बात कही जाती है। अतः कलाकार के पास अन्तर्वस्तु की दृष्टि से यदि कुछ भी नहीं है, तो वह कलाकार के पास विचित्र रचना कर सकती है, सुन्दर की नहीं।
कला व प्रतीक:-
कला की समस्त अन्तर्वस्तु प्रतीकात्मकता रूप ग्रहण कर लेती है। प्रतीक को कला से पृथक नहीं किया जा सकता। यदि प्रतीक को कला से अलग कर दिया जाये तो वह रूपक बन जाता है और विज्ञान की नकल करने लगता है और कलाकृति का समस्त प्रभाव कम हो जाता है।
कलाओं का विभाजन:-
कलाओं को विभिन्न प्रकार से विभाजित किया है। जैसे- यह देखना है कि यह गीत है या महाकाव्य अथवा चित्र में यह देखना है कि इनमें किस वेशभूषा का चित्रण हुआ है अथवा यह घरेलू जीवन युद्ध फूलों अथवा पशुओं का चित्र है। इन कृतियों के विभाजन भावों के आधार पर दुःख-सुख, करुणा, प्रभावी, शालीन इत्यादि आदि में किया जाता है।
इस प्रकार कलाओं का विभाजन पुस्तकालय का विभाजन पुस्तकों के वर्गीकरण के समान है, केवल अध्ययन की सुविधा के लिए है। उनका तत्व के आधार पर कोई महत्व नहीं। कला में अनुभूति की गहराई, कल्पना की ऊँचाई, इन्द्रियबोधक सजीवता आदि देखना ही कला की सच्ची समीक्षा है।
निष्कर्ष:-
अतः प्रज्ञा, सहजवृत्ति और अभिव्यक्ति पर निष्कर्ष देते हुए क्रोचे कहते हैं कि सहज ज्ञान अभिव्यक्ति है। क्रोचे कठिन किन्तु रुचिकर विचारक हैं। उनके विचारों में सरलता है, परन्तु उनकी कठिन व्याख्या आवश्यक है। उन्होंने अस्तित्व पर विचार दिया है- ‘‘अस्तित्व उनके अनुसार मन आत्मा है।’’ उन्होंने चार श्रेणियां बतायी हैं। प्रत्येक का अपना उपयुक्त विचार और अनुशासन है। प्रत्येक अलग क्षेत्र से जुड़ा है। जैसे- कला तर्क, आर्थिक व नैतिक। इसमें कला प्रथम स्थान पर आती है, कला, कला के रूप में वैज्ञानिक, आर्थिक और नीति सम्बन्धी बन्धनों से अलग है। कला सौन्दर्य सम्बन्धी बातों का जानना है, सुन्दर को जानना है।
इस प्रकार क्रोचे ने सौन्दर्य कोचे ने सौन्दर्य को कला को परिभाषित किया और बताया कि सौन्दर्य व कला भावों की अभिव्यक्ति है। यह कलाकार कि सहजवृत्ति व रचनात्मक बिम्बों में प्रकट होती है।
................................................
चतुर्थ सेमेस्टर 
रैफेल की कला साधना
--प्रियंका गौतम
रैफेल


जन्म -06 अप्रैल 1483 में उर्बीनी में हुआ, मत्यु -06 अप्रैल 1520,  37 साल की उम्र में रोम इटली, राष्ट्रीयता - इटेलियन, वाद-चरम पुनरूत्थान काल, माध्यम -चित्रकला, वास्तुकला ।
1. परिचय
2. स्टेंन्ट
3. दा स्कूल आॅफ एथेन्स
4. सिस्टाइन मैडोन्ना
5. लीडा और हंस
6. इतालवी

परिचय ;
रैफेेल चरम पुनरूत्थान के तीनों प्रमुख कलाकारों में सबसे छोटा था।  रैफेल 06 अपै्रल 1483 को उर्बीनो इटली में पैदा हुआ था। वह चि़त्रकार और उच्च नवजागरण के दौरान एक वास्तुकार भी था।  कलाचार्यो की कोटि में यह सबसे अधिक समन्वयवादी था।  वह समय-समय पर अन्य मास्टर्स के विपरीत अत्यधिक अनुकृतियां अंकित कर रहा था।  उसने वेटिकन में 50 विधार्थीयों की एक कार्यषाला भी चला रखी थी।  रैफंेल का परिवार एक बहुत ही कलात्मक परिवार था।  उसके पिता जियोवानी सान्ती अदालत के डयूक आॅफ उर्बीनो, फेडरिको इल दा मोन्टीफेल्टरो चित्रकार था।  जब वह आठ साल का था तो उसकी माॅ की मृत्यु हो गयी थी, उसके पिता ने दोबारा षादी की, सन् 1494 में पिता की भी मृत्यु होने के पष्चात अनाथ रैफेल कुछ दिनों तक भटकता रहा।  1500 में वह एक प्रषिक्षु के साथ अम्बरियन मास्टर पिएत्रों पेरूजिनां के यहाॅ कार्य सीखना षुरू किया।  1501 मेे वह पूरी तरह प्रषिक्षित किया गया था। अतः वह एक मास्टर माना जाता है। उनकी षैली हालांकि बहुत मुष्किल हैं।  सम्भवतः इसी समय उसने सैनिक का स्वप्न नामक चित्र की रचना की थी जो अब नैषनल गैलरी लन्दन मेें है।  इस समय लियोनार्दो 48 साल का और माइकेलरंगजिलों 25 साल का था, जबकि रैफेल केवल 17 साल का था फिर भी केवल दस साल पष्चात वह उनके समकक्ष मान लिया गया  । 1500 से 1510 ई0 का युग रैफेल के एक महान चित्रकार के रूप में उदय एवं चरम पुनरूत्थान का एक विषिश्ट युग है।
यद्यपि 1502. 03 में अंकित एक सूली के चित्र में भी उसने पेरूजिनों से प्रेरणा ली है तथापि 1504 ई0 के कुमारी के चि़त्र में संयोजन एंव रचना सम्बन्धी प्रौढता का परिचय मिलता है।  इसी समय वह फलोरेन्स गया जहाॅ उसे अपनी कला की रूढिवादिता का आभास हुआ होगा।   फलतः उसने अनेक रेखा चित्रों आदि के ़द्वारा उन समस्त उपलब्धियों को षीघ्र ही आत्मसात कर लिया  जो उसे नवीन प्रतीत हुई।  लियेानार्दो के कुमारी, षिषु तथा सन्त ऐन के चित्रों से उसने एक नवीन प्रकार के मैडोन्ना चित्रों का विकास किया और मोनाल्सिा के आधार पर व्यक्ति चित्रों की नयी पद्वति का आरम्भ किया जिसका उदाहरण मैडालेन्ना डोनी का व्यक्ति चित्र है।  लियोनार्दो के छाया प्रकाष के सिद्वान्तोें का प्रभाव रैफेल की पृश्ठ-भूमियों मंेे इसी समय से मिलना आरम्भ हो जाता है। माइकेलएंजिलों के प्रभाव से उसकी आकृतियों की रेखाएं षक्तिषाली और संयमपूर्ण हो गयी है। 1508 ई0 में वह रोम गया और पोप जूलियस द्वितीय के द्वारा वेटीकन में चित्रांकन के हेतु नियुक्त किया गया  ।
 स्टेन्ज -
वेटीकन का यह कक्ष चार मानसिक वृत्तियाॅ धर्म, दर्षन, काव्य , तथा न्याय के नाम से प्रसिद्व है, जहाॅ पोप लोगों से मिलतेे और पत्रों पर हस्ताक्षर करते थे। इस कक्ष की छत में एक गोल फुल्ला बना है जिसमें चारों वृत्तियो के प्रतीक रूपक अंकित है जिनके बीच-बीच में शटकोणों में उन्हीं से सम्बन्धित कुछ चित्र बने है।  उदाहरर्णाथ धर्म और न्याय के फुल्लों के बीच के शटभुज मेें आदम तथा हव्वा और प्रतिबन्धित फल चि़ित्रत है।  धर्म तथा दर्षन से सम्बन्धित चित्र बडे और काव्य तथा न्याय से सम्बन्धित चित्र छोटे आकारों मेें हंै।  अतः इस प्रकार षीघ्र ही वह वहाॅ का प्रधान चित्रकार हो गया।  केवल माइकेलएंजिलो ही उससे श्रेश्ठ और पृथक था जो उस समय वहाॅ सिस्टाइन चैपल की छत का चित्रण कर रहा था।  26 साल की आयु में रैफंेल कलाकारों की प्रथम श्रेणी में गिना जाने लगा और अपना षेश जीवन उसने वहीं व्यतीत किया।  1509 ई0 तथा 1512 ई0 के मध्य उसने पोप जूलियस द्वितीय तथा दषम के हेतु भित्ति चित्र अंकित किये इन्ही में एक ’’दा स्कूल आफॅ एथंेन्स’’ नामक प्रसिद्व कृति है।  यह कृति चरम पुनरूत्थान का उत्तम उदाहरण है।  एक अन्य चित्र श्रृखला हेलियेदोरस के भवन मेे चित्रित हुई है जिसमेे नाटकीयता अधिक है।

’’दा स्कूल आफॅ एथंेन्स’’ नामक चित्र मेे प्लेेटो तथा अरस्तू की आकृतियों के कारण इसे यह षीशर्क दिया गया है।  प्लेटो की आकृति बडी है , उसे आत्म तुश्ट , अतिन्द्रिय दार्षनिक तथा आर्दषवादी दिखाया गया है।  अरस्तू को स्पश्ट तथा प्रकृतिवादी दार्षनिक दिखाया गया है।  प्लेटो के वस्त्र लाल तथा सीढियों के मध्य में प्राचीन दार्षनिक डायोजनी तथा निचली सीढियों पर प्राचीन गणित आदि दिखाये गये हैं।  अरस्तूू के आकाष तथा समुद्र के समान सर्वसमाहारी तत्व  के प्रतीक नीले रंग के है।  प्लेटो अंगुली से ऊपर की ओर संकेत कर रहा है, अरस्तू खुले सीधे हाथ से संसार की ओर संकेत कर रहा है,  उसके हाथ की पुस्तक भी क्षैतिजाकार है अरस्तू के परिधान का विन्यास क्षैतिज है जबकि प्लेटो के परिधान का उध्र्व है।  प्लेटो की आकृति की सीमा बंधी-बंधी हंै जबकि अरस्तू की आकृति की सीमा इधर-उधर निकल की प्रकति आधारित दर्षन नेचुरल फिलाॅसफी की ओर संकेत करती है।  चित्र में बाॅंयी ओर गंजे सिर वाला सुकरात ऊपरी पंक्ति में सीधे हाथ पर जेनों, सीढियों के मध्य में प्राचीन दार्षनिक डायोजेनी तथा निचली सीढियों पर प्राचीन गणितज्ञ आदि दिखाये गये है।  नीचे बाॅयी ओर एक बडी आकृति पर माइकेल एंजिलो की सिस्टाइन की छत की षैली का प्रभाव है।  सभी आकृतियाॅ सुन्दरता से संयोजित है और प्रकाष तथा वायु सहित एक खुले वातावरण का संकेत करती है।  इसकी रचना 1511 ई0 1514 ई0के मध्य हुई थी , जबकि माइकेलएंजिलो के सिस्टाइन भित्ति चित्र 1512 में दर्षकों के हेतु खोले गये थे।  अतः इनकी षैली एवं रंग योजनाओं का भी रैफेल पर प्रभाव पडा।  अन्य स्थानों के चित्र उसके षिश्यो नें अंकित किये है।  इसी समय 1513 में पोप जूलियस द्वितीय की मृत्यु हो गई , लेकिन काम बन्द नही किया गया वह पूरा किया गया था।  अगले पोप, मेेंडिसी पोप लियो एक्स, रैफेल के बहुत अच्छे दोस्त बन गये और 1514 में वह सेंट पीटर के गिर्जाघर का प्रमुख वास्तुषिल्पी भी बन गया।  इसके अलावा क्योंकि वह वास्तुकार व्रमान्ते का दोस्त था, वह उसके साथ सिस्टाइन चैपल में चुपके से एक चोटी को देखने गया और वहाॅ की खूबसूरती से अवाक हो उठे थे। 
रोम के फार्नेसिया नामक स्थान पर उसने जो भित्ति चित्र अंकित किये थे वे उत्कृष्ट  श्रेणी के है।  वह टेपेस्र्टी डिजाइन का भी आविश्कार कर रहा था जिससे अंकित परदे सिस्टाइन चैपल में टाॅगने की योजना थी।  इसी समय वह प्राचीन धर्म षास्त्र के आधार पर वेटीकन में चित्र बना रहा था। 1513 ई0 में वह चित्रित गैलेटिया, जो पौराणिक कथाओं पर आधारित है। यह साइक्लोप्स पोेलीथिम्स से पता चलता है कि यह चित्र दा विंसी की त्रिकोणीय संरचना है जिससे रैफेल भी अन्य कलाकारों की भांति प्रभावित हुये थे।  1515 ई0 की उसकी एक सिस्टाइन मैडोन्ना है जो अकेले उसी ने चित्रित की थी।
 सिस्टाइन मैडोन्ना 
                    रैफेल के अन्य मेडोन्ना चित्रों के आर्दष पर ही इस चित्र की मैडोन्ना सर्जित की गयी है।  यह काश्ठ  फलक पर चित्रित है और अब डेस्डन संग्राहलय मेें है पृश्ठभूमि बादलों जैसी है जिसमें ध्यान देने पर छोटे छोटे षिषुओे की मुखाकृतियाॅ दिखायी देती है।  चित्र का संयोजन नाटक के मंच के समान है।  ऊपरी भाग में परदे तथा परदों की एक छड अंकित है।  चित्र निचले हाषियो के पास खिडकी अथवा मंच जैसा है।   नीचे दो पंखदार षिषु पीछे ऊपर की ओर दृश्टिपात कर रहे हैं।  संत सिक्सटस एक ओर तथा सन्त बारबेरा दूसरी ओर आगे खडे है परन्तु उनकी दृश्टि  किस पर है, यह स्पश्ट नहीं है।  नीचे के एक बालक के एक पंख को भी नहीं दिखाया है।  मेडोन्ना तथा षिषु दर्षकों की ओर देख रहे हैं या उनसे भी आगे उनकी दृश्टि जा रही है,  यह भी निष्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।   इस चित्र में इन समस्त कमियों के साथ इससे एक महत्वपूर्ण सच्चाई यह सामने आती है कि चित्र का संयोजन मंच के सेटिंग की भांति किये जाने से समस्त परवर्ती कला में स्टेज सेटिंग के समान ही दृष्य कल्पित किये गये, जिसके कारण उसे रीतिवाद कहा गया।   रीतिवाद के पुनरूत्थान एवं बरोक षैली के मध्य का आन्दोलन माना जाता है और कला में विकृति का आरम्भ रैफेल के उक्त प्रकार के चित्रों से ही माना जाता है।

उसकी अन्तिम श्रेश्ठ कृति ईसा का दिव्य षरीर धारण करना है जो 1517 में आरम्भ हुई।  1520 में रैफेल की मृत्यु तक यह पूर्ण नहीं हो पायी थी।  इसे उसके प्रिय षिश्य ज्यूलियों रोमानों द्वारा पूर्ण किया गया।  इस चित्र में एक प्रकार का रीतिवाद है।   मारिया बिबबिजीना रैफेल की मंगेतर उससे षादी करना चाहती थी लेकिन वह षादी के लिए तैयार नहीं था इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि वह एक कार्डिनल बनने के बारे में सोच रहा था।  एक अन्य संभावित कारण यह भी है कि वह उसे वास्तव में कभी प्यार नहीं करता था।  वह एक रखैल के रूप में रहती थी, जिसे वह निक नाम ’’ला फोरनरिना’’ कहकर पुकारता था लेकिन उसका असली नाम ’’मार्गेरिटा लूटी’’ था।  06 अपै्रल 1520 को रैफेल का निधन हो गया। उसकी मौत उसकी मालकिन के साथ अत्यधिक यौन सम्बन्ध की एक लम्बी रात की वजह से हुई थी और वह बुखार से ग्रसित भी थी।  उनके डाक्टरों द्वारा गलत ईलाज किये जाने के कारण उसकी मृृत्यु हो गयी।  वह उस समय केवल 37 साल का था।  रैफेल का अन्तिम संस्कार अत्यन्त भव्य तरीके से किया गया था और वह सब देवताओं के मंदिरों में ले जाया गया।  उसकी पत्थर की बनी हुई कब्र पर यह कहते है कि ’यहां की प्रसिद्वि रैफेल में निहित है।’  जब वह जीवित थे तो वह प्रकृति पर विजय प्राप्त होने की आषंका    रखते थे।  वसारी ने रैफेल के लिए एक जीवनी लिखी और कहा कि वह तो कोमल धमार्थ की भांति पषुओं से भी प्यार करता था।  रैफेल की कला सामान्तों एवं धर्म निरपेक्ष है।  उसमें विवरणों की बारीकी का अभाव तथा भावभिव्यक्ति की प्रौढता है।  उसने जीवन के सुन्दर पक्ष को ही चित्रित किया है और वह बौद्विकता के साथ-साथ किंचित् ऐन्दिªकता की ओर भी झुका है, उसे समन्वयवादी चित्रकार कहा जाता है जिसने अपने समकालीन कलाकारों तथा प्राचीन सभ्यताओं में से महत्वपूर्ण विचारों को संकलित किया, साथ ही उनमें कला के षाष्वत गुणों को भी सम्मिलित कर लिया।  लीडा और हंस के पौराणिक विषय का उस समय अनेक चित्रकारों ने अंकन किया था।
लीडा और हंस:
                                एतोलिया के शासक थीस्टिओं की पुत्री तथा स्पार्टा के षासक तिन्देरियस की पत्नी लीडा बहुत सुन्दर और आकर्शक थी।  उसे जल में क्रीडा करने का बहुत षौक था जिससे व्यायाम के कारण उसका षरीर एकदम साॅचे में ढला जैसा हो गया था।  एक दिन जब वह बहुत आनन्दमग्न होकर पानी में तैर रही थी तो एक हंस का छद्म वेश धारण करके ज्यूस (जूपीटर) वहां आया और लीडा के षरीर से सट कर तैरने लगा।  इसी मध्य यह उसका लीडा से संसर्ग हो गया परन्तु जल क्रीडा का आनन्द लेती हुई लीडा को इसका आभास तक नहीं हुआ।  उसी रात्रि को लीडा का अपने पति तिन्देरियस से संसर्ग हुआ।  बाद में लीडा के तीन अण्डे उत्पन्न हुए जिनसे दो पुत्रों ’केस्टर’ एवं ’पौलक्स’ तथा एक कन्या ’हेलेन’ का जन्म हुआ।  लीडा तथा हंस का एक प्राचीन षास्त्रीय मूर्ति षिल्प भी उपलब्ध है।  पुनरूत्थान काल में भी अनेक कलाकारों ने इस विशय का चित्रण किया था।  लिओनार्दो द विंची ने ऐसे दो चित्र अंकित किये थे, इनको आधार बनाकर एक रेखा-चित्र रैफेल ने भी बनाया था।
रैफेल को षताब्दियों तक समूह संयोजन का आचार्य माना जाता रहा है।  व्यक्तियों के समूह, समूहों का सम्पूर्ण चित्र में अनुपात, चित्र की ऊॅचाई और गहराई का अनुपात और व्यक्तियों की विभिन्न मुदाऐं इन सब में उसने कमाल कर दिखाया है।  रैफेल की सर्वाधिक ख्याति उसके मैडोन्ना चित्रों से है। रैफेल ब्रामन्ते का शिष्य  था  उसने सेन्टपीटर में भी कार्य किया था जहां उसके साथी जूलियों द संगालो तथा फ्रा जिओवानी जिओकोण्डो थे।   जिओवानी द उदीनों की सहायता से उसने नीरों के गोल्डन हाउस से प्रेरित होकर स्टुक्को (चूने की गच पर साॅचे द्वारा मुद्रण) तथा अलंकारिक चित्रण का कार्य भी किया था।  भवनों के सामने के भाग पर वह रिलीफ में छाया-प्रकाष के सूक्ष्म प्रभाव देता था जो चित्रकला जैसे लगते थे।
इतालवी:                                         
ला दिस्पुटा डेल स्कैक्रामेंटो, या दिस्पुटा है, इतालवी पुर्नजागरण कालीन कलाकार रैफेल द्वारा चित्रित पेटिंग है।  यह 1509 और 1510 के बीच में बनायी गयी है। चित्रकला में रैफेल ने एक फैले दृष्य में स्वर्ग और पृथ्वी दोनों को बनाया है।  ऊपर मसीह धन्य वर्जिन मेरी, जाॅन बैपरिस्ट और एडम मूस और याकूब के रूप में भिन्न बाइबिल आंकडे से घिरा हुआ है।  परमेष्वर पिता यीषु के ऊपर बैठता है, स्वर्ग का सुनहरा प्रकाष पर राज दर्षाया गयाा है।  नीचे वेदी पर सोने या चाॅदी का खुला या पारदर्षक पात्र जिसमें पवित्र रोटी रखी जाती है बैठता है।  फ्लेंकिड  द्वारा चित्रित वेदी में धर्मषास्त्रियों की बहस तत्व  में परिवर्तन कर रहे है।  मसीह के षरीर परम प्रसार है, जो चर्च के प्रतिनिधियों में चर्चा की है में प्रतिनिधित्व किया है, उनके बीच पोप सिक्स्टस चतुर्थ चित्र के नीचे में पोप सोने के कपडे पहने है सिक्स्टस  के पीछे सीधे डांटे है, लाल पहने और लाॅरेल माल्यार्पण ( एक लेखक के रूप में उनकी महानता का प्रतीक है) बाॅए हाथ से कोने में वहां एक गंजा एक रेलिंग पर झुके किताब पढ रहा है।  इसके संरक्षक रैफेल और पुर्नजागरणकालीन  वास्तुकार ब्रामान्ते है।

रैफेल के चित्रण में मिठास, ममता, बालको सा सरल विष्वास और सौन्दर्य-  पूर्ण कोमल स्निग्धता है।  उसकी कला में से ही बरौक षैली का विकास हुआ।  निकोलस पुसिन तथा आंग्र पर उसका विषेश प्रभाव पडा।  माईकेलएंजिले तथा रैफेल पुनरूत्थान काल की दो विरोधी प्रवृत्तियों के सूचक है ।  इनसे इस युग के दो भिन्न दिषाऐं भी मिली।  दोनों एक दूसरे के विरोधी थे, यह सुप्रसिद्व है।  रैफेल स्वभाव से मिलनसार और परिश्कृत व्यवहार वाला था।  उसने अनेक चित्रकारों को षिक्षित किया और उनका नेतृत्व भी किया।  माइकेलएंजिलों अधिक समय तक अपने सहायकों तथा षिश्यों के साथ कार्य नहीं कर सकता था।  यद्यपि जो छोटे कलाकार उसके पास आते थे वह उनकी सहायता भी करता था तथापि अन्तमुर्खी प्रवृत्ति का था।  इन प्रवृत्तियों के कारण इन दोनों कलाकारों ने दो भिन्न षैलियों का सृजन किया माइकेलएंजिलों द्वारा सिस्टाइन चैपल की छत में अंकित आकृतियों में प्रतिमाओं जैसा भार है वहां रैफेल द्वारा वेटीकन में चित्रित रूप लावण्य एवं परिश्कार युक्त है। माईकेल की षैली गम्भीर एवं आवेष युक्त है, रैफेल में नवीनताओं की सहज स्वीकृति है।  यही कारण है कि किसी कलाकृति को पूर्ण करने में माईकेलएंजिलों जहां अधिकाधिक कठिनाई अनुभव करता था वहीं रैफेल ने सहज रूप में ही अनेक चित्र स्वयं पूर्ण किये तथा अपनी चित्रषाला में कार्य करने वाले अन्य चित्रकारों से बनवाये।  इसके साथ यह भी दृश्टव्य है कि केवल 37 वर्श की आयु में उसकी मृत्यु हो गयी थी।  रैफेल ने समकालीन कलाकारों से भी प्रेरणा ली थी।  माईकेलएंजिलों के स्नानार्थी तथा लियोनार्दो के लीडा और हंस की अनुकृति पर बने रेखाचित्र इसके उदाहरण है।
1569 ई0 में फ्लोरेन्स टस्कनी के एक नवीन एवं विस्तृत राज्य का अंग बन गया।  इस समय कलाकारों के सामने अनेक श्रेश्ठ कृतियां थी जिनसे वे प्रेरित हो रहे थे।

छात्रा ;
प्रियंका गौतम
एम0 ए0 चतुर्थ सेमिस्टर
रोल न0- 0190010007
निर्देशन ;
डा0 लाल रत्नाकर 
चित्रकला विभागाध्यक्ष 
एम0एम0एच0 काॅलिज
गाजियाबाद-201001




















11 टिप्‍पणियां:

  1. dr.Lal Ratnakar is a great man in the painting world due to his work.
    I am very thankful to him and his students those are help me in my work due to this blog paintingsmmh.blogspot.in
    thanks once again
    Priyadarshi Vyas , M.A. final year , jnvuniversity jodhpur under Mrs. Dr.Renu sharma HOD fine arts department.

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छा कार्य पूरे भारत मे

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छा कार्य पूरे भारत मे

    जवाब देंहटाएं
  4. I want to be part of this..contact me on instagram..gunjansaini9

    जवाब देंहटाएं
  5. . अद्धभुत काम किया है आपने

    जवाब देंहटाएं
  6. रोमनसवादी सौंदर्य दर्शन

    जवाब देंहटाएं
  7. हेल्पफुल वर्क स्टूडेंट के लिए स्टूडेंट इससे अच्छे से समझ सकते हैं

    जवाब देंहटाएं